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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यदमा ५४६ आक्रमण करते हैं या वे अत्यधिक उग्र होते हैं। शारीरिक प्रतिचार ( response) भी उनके प्रति अतिप्रचण्ड होता है। यहाँ पर काकघटना बहुत स्पष्ट हो जाती है। __ विक्षत की किलाटीय ऊति टूट कर क्लोमनाल में फूट जाती है और शरीर उपसर्ग को बाहर फेंक देने का यत्न करता हुआ प्रतीत होता है। इसके कारण क्लोमनाल प्राचीर टूट फूट कर दुर्बल हो जाती है तथा अभिस्तार करने लगती है। यह क्रिया ही फुफ्फुस में विवरनिर्माण का श्रीगणेश करती है। ज्यों ज्यों अधिकाधिक किलाटीय ऊति मृदुल हो जाती है वह क्लोमनाल में फूटती जाती तथा त्यो त्यों ही विवर बड़ा होता जाता है। यह चित्र शारीरिक प्रतिरोध और जीवाण्विक उग्रता नामक दो शक्तियों के सन्तुलन के अनुसार छोटा या बड़ा बनकर सन्मुख आता है। शरीर की प्रतिरोधक शक्ति जितनी ही सुदृढ होगी उतना ही अधिक तन्तूत्कर्ष वहाँ पर होगा जिसके कारण विवर की प्राचीरों में उतनी ही अधिक तान्तवऊति चढ़ी हुई रहेगी। ___ फुफ्फुसशीर्ष पर इस रोग में प्रायः हम एक या दो विभिन्न आकार के विवर देखा करते हैं । इन विवरों की प्रावर मसृण ( smooth ) होती है, यह ग्रन्थिकीय ( noduler ) भी हो सकती है, परन्तु यह एक तीव्र विवर जैसी चीरयुक्त ( ragged ) अवस्था में नहीं आती और कटी फटी सी नहीं दिखती क्योंकि इस पर एक निश्चित ससीम कला का आस्तरण चढ़ा होता है। इस विवर के भीतर प्रायः श्वासनलिका तथा रक्तवाहिनियाँ पारगमन ( traverse ) करती हुई देखने में आती हैं । इन वाहिनियों का अपरदन होने से या उनकी प्राचीरों में छोटी छोटी सिराज ग्रन्थियाँ ( aneurysms ) बनने से गम्भीरस्वरूप का ऊर्ध्वग रक्तपित्त (रक्तस्राव-haemorrhage ) हो सकता है। __ इन विवरों का रोपण भी होता है जो या तो वहाँ पर व्रणवस्तु के निर्माण के कारण अथवा किलाटीय पदार्थ के भर जाने के कारण हुआ करता है । विवर के समीप छोटे छोटे कई गाण्विक सघन विक्षत पाये जाते हैं ये कई कई आपस में मिलकर बड़े बड़े आकृति के पुंजों में बदल जाते हैं। ऊपर ये पुंज अधिक मिलते हैं तथा नीचे कम । जिस प्रकार एक गर्माणु (acinus ) फुफ्फुस उति का मूल एक है उसी प्रकार गाण्विक विक्षत फुफ्फुस यक्ष्मा की वैकारिकी के मूल एक होते हैं। फुफ्फुसीय गर्ताणुओं पर यक्ष्मकणन अति का आक्रमण होता है जिसके कारण या तो उसका अवपात हो जाता है या फिर उसमें स्राव भर जाता है जो अतिशीघ्र किलाटीय रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार के विक्षतों के केन्द्र में एक सूक्ष्म श्वासनाली या क्लोमनाली होती है और उस नाली के चारों ओर चन्द्र ग्रन्थिकाओं के समूह रहते हैं ये प्रारम्भ में पाण्डुर तथा पारभासी (translucent) होते हैं। पर जब उनमें किलाटीयन होता है तो वे पारान्ध ( opaque ) हो जाते हैं और उनका वर्ण श्वेत या पीत हो जाता है। उनके कटे हुए तल पर अनेक तान्तव तार देखे जा सकते हैं जो तन्तूरकर्ष का कितना भाग उनके निर्माण में रहा है इसे बतलाते हैं। तन्तूत्कर्ष For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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