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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४८ विकृतिविज्ञान भक्षिकोशाओं का जो काफिला लसवहाओं में होकर चला आरहा था और अपने गन्तव्य स्थान कण्ठक्लोमनालीय लसग्रन्थिकाओं को जाना चाहता था उसे मार्गावरोध के कारण मार्ग में ही विक्षत स्थल पर रुकना पड़ता है जिसके कारण वर्ण में परिवर्तन देखने में आता है। अण्वीक्षण करने पर एक रचनाविहीन (structureless ) केन्द्र दिखाई देता है जिसके चारों ओर रंगी तान्तव ऊति का एक सघन कटिबन्ध बना रहता है या सम्पूर्ण विक्षत व्रणवस्तु मात्र ही दिखता है। किलाटीय पदार्थ में चूने के लवण बहुधा निस्सादित हुए देखे जाते हैं। इन्हीं चूने के लवणों के कारण क्षरश्मि चित्र द्वारा हमें यक्ष्मा के विक्षतों का ज्ञान प्राप्त होता है। जब चूर्णीयित ग्रन्थिकाएँ बहुत होती हैं तो चित्र पाषाण खनि ( stone quarry ) स्वरूप का लगता है । यह तन्तूत्कर्ष द्वारा रोपण का एक प्रकार है । फुफ्फुस चूर्णीयन (pulmonary calcification ) यद्यपि रोपित यच्मा के कारण होता है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि अब किसी प्रकार वह नहीं होता। अमेरिका में अतिप्ररसोत्कर्ष ( histoplamosis) नामक रोग के कारण तथा एक प्रकार के प्रजीवीकवकरोग (coccidiomycosis ) नामक रोगों में भी फुफ्फुस चूर्णीयन देखा जाता है । फुफ्फुसशीर्ष की तान्तव वणवस्तुएँ उनका विक्षामेण्यिक वर्ण ( anthracotic pigmentation ) तथा स्वल्प वायुकोशाभिस्तरण ( emphysena) का मिलना आदि लक्षण यक्ष्मा के अस्त्यात्मक माने जाते हैं। परन्तु मैडलर ने इस तथ्य को न मानना ही स्वीकार किया है। उसके कथनानुसार फुफ्फुसशीर्षों में व्रणवस्तु यमो. पसर्ग से अधिक मात्रा में पाई जाती हैं । यमविक्षत द्वारा बनने वाले और साधारणतः फुफ्फुसशीर्ष पर पाये जाने वाले व्रणवस्तुओं ( scars ) में बहुत अन्तर वह बतलाता है। ऐसा लगता है कि फुफ्फुसशीर्षि व्रणवस्तु दो प्रकार की होती होगी। एक यमजन्य और दूसरी सैकजा ( silica ) नामक रजयुक्त। सैकजा की उपस्थिति होने पर सर्वप्रथम उपफुफ्फुसच्छदीय लसवहाओं में सैकत रजयुक्तकोशाओं का निस्साद हो जावेगा। फिर प्रत्यक्ष ऊति का प्रगुणन होगा तथा वायुकोशा प्राचीरों में श्लेष्मजन एकत्र हो जाती है। फिर फुफ्फुसच्छद का श्लेष्मजनयुक्त स्थौल्य हो जाता है। यक्ष्मा का श्रेणीविभजन ( classification ) करना बहुत कठिन कार्य है पर इस रोग में जो परिवर्तन होते हैं उन्हें हम ३ समूहों में विभक्त कर सकते हैं जो इस प्रकार हैं : १. तन्तुकिलाटीय यक्ष्मा ( fibrocaseous tuberculosis ) २. यक्ष्मकिलाटीय श्वसनक ( tuberculous caseous pneumonia) ३. तीव्रश्यामाकसम यक्ष्मा ( acute miliary tuberculosis) अब हम इन्हीं का वर्णन संक्षेप में करेंगे। तन्तुकिलाटीय यक्ष्मा इसे जीर्ण सत्रण यक्ष्मा ( chronic ulcerative tuberculosis ) भी कहते हैं। यह यक्ष्मा का वह प्रकार है जिसमें यमदण्डाणु अधिक मात्र होकर For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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