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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५० विकृतिविज्ञान की और अधिक पुष्टि श्वास नाली तथा वाहिन्य प्राचीरों के स्थूलन से हो जाती है। इस धरातल से सम्बद्ध फुफ्फुसच्छद भी स्थूलित हो जाता है और उसमें नवीन कांस्यक्रोड (प्लूरिसी-उरस्तोय ) के लक्षण देखने को मिलने लगते हैं। फुफ्फुसच्छदीय अभिलागों ( pleural adhesions ) सदैव रोपित वा सक्रिय यक्ष्मा के निदर्शक माने जाते हैं। ये भी महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि वे इस प्रकार प्रभावित फुफ्फुस क्षेत्र को विश्रान्ति प्रदान करते हैं। इस रोग में प्रादेशिक लसग्रन्थिकाएँ प्रभावित नहीं होती जैसा कि प्रथमोपसर्ग में अवश्यमेव देखा जाता है। शायद ही किसी पर कोई प्रभाव पड़ता हो। इसका कारण यह है कि प्रथमोपसर्ग के कारण इनमें बहुत प्रतीकारिता उत्पन्न हो जाती है जो यक्ष्म दण्डाणुओं को अपने अन्दर आने से रोकती है, पर जिनमें थोड़ी उसकी कमी हो जाती है उनमें हलका सा प्रभाव भी देखा जा सकता है। उत्तरजात यक्ष्मा के तन्तुकिलाटीय प्रकार की तुलना यदि हम प्राथमिक प्रकार के रोग के साथ करें तो हमें ३ महत्व के लक्षण दिखलाई देते हैं: १-विवरनिर्माण २-गाण्विक विक्षतों का आधिक्य, ३-कण्ठश्वासनालिय लसग्रन्थिकाओं का यक्ष्मोपसर्ग से अप्रभावित रहना। अण्वीक्ष चित्र में भी पर्याप्त अन्तर रहता है। प्राथमिक विक्षत श्यामाकसम ( mi. liary ) बनता है । यमिका का मुख्य घटक अधिच्छदाभ कोशा रहता है । यह प्रति. क्रिया यच्मा की प्रमुख द्योतिका ( characteristic ) है। चाहे सामान्यतया मिलने वाले महाकोशा और किलाटीयन न मिलें परन्तु अधिच्छदाभ कोशा बहुत बड़ी संख्या में अवश्य मिलता है। अधिच्छदाभ कोशाओं के चारों ओर छोटे गोल कोशा या लसीकोशा पाये जाते हैं। एक एक यचिमका अन्य अन्य यदिमका के साथ मिलकर बहुत बड़ा पुंज (mass) बना लेती है। इन पुंजों में किलाटीयन की उपस्थिति बहुत स्पष्ट रूप से प्रकट होती है। किलाटीय केन्द्र के अन्दर कुछ प्रत्यास्थ (इलास्टिक) ऊति भी मिल जाती है। इसी ऊति के कारण किलाटीय पुंज में इतनी कड़ाई देखने में आती है। पर जब किलाटीयन के ऊपर पूयजनक जीवाणु अपना अड्डा जमा लेते हैं तो वे इस प्रत्यास्थ ऊति को भी गला देते हैं जिसके कारण किलाटीक पदार्थ ढीला हो जाता है और ष्ठीव में प्रत्यास्थ ऊति के तन्तु पाये जाते हैं। जालक ( reticulum ) के अभिरंजन करने वाले अभिवर्ण से रंगने पर प्रत्यास्थ ऊति की बहुलता का ज्ञान सरलतापूर्वक हो जाया करता है। तन्तुकिलाटीय यक्ष्मा में उपरोक्त परिवर्तनों के साथ साथ तन्तुरूहों (fibroblasts ) का प्रगुणन भी मुख्य घटना है जिसके कारण संयोजीऊति का खूब निर्माण होता है। जिसके कारण अन्तर्खण्डिकीय पटियों का स्थूलन हो जाता है, फुफ्फुसच्छद भी स्थूल हो जाती है तथा श्वासनलिकाओं तथा रक्तवाहिनियों की प्राचीरें भी खूब मोटी पड़ जाती हैं। प्रत्यास्थ ऊति भी बढ़ जाती है । वाहिनियों का न केवल बाह्य For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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