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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३० विकृतिविज्ञान के नाम से जानते आ रहे हैं। इसमें धमनी के अन्तश्छद में प्रक्षोभ के कारण अतिघटन (परमचय-hyperplasia) होने लगता है जिसके उपरान्त तन्तूत्कर्ष होता है इसके कारण वाहिनी सुपिरक पूर्णतः बन्द हो जाता है या उसमें कोई रक्त का आतंच बैठ जाता है और उसके द्वारा होने वाली रक्त पूर्ति रोक देता है। यह विकार अनेक जीर्ण औपसर्गिक रोगों में देखा जाता है। इस अभिलोपी अन्तश्छदपाक का यक्ष्मा में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। बात यह है कि यक्ष्मोपसर्ग अब ऊतियाँ को मृदु कर देता है। यदि धमनी का अभिलोपी अन्तश्छदपाक पहले से नहीं हुआ तो यक्ष्मा उस पर भी अपना प्रभाव कर सकती है और पहले प्रकार का अन्तश्छदपाक होकर सिराजग्रंथि उत्पन्न हो सकती है। पर यदि अभिलोपी अन्तश्छदपाक यक्ष्मविक्षत के समीप हो गया तो कोई कारण नहीं कि वाहिनी में प्रथम प्रकार का अन्तश्छदपाक हो और यदि हुआ भी तो वहाँ सिराजग्रन्थि नहीं बन सकती । इसी कारण फुफ्फुसगत या आन्त्रगत यक्ष्मा में अत्यधिक रक्तस्राव से संरक्षण पाने के लिए अन्तश्छदपाक एक वरदानस्वरूप प्रथा है जिसके कारण रोगी सिराजग्रन्थि के विदारण से उत्पन्न रक्तस्राव द्वारा शीघ्र ही ही न मर कर कुछ अधिक काल तक जी सकता है जिसमें योग्य चिकित्सा को पर्याप्त अवसर रहता है। (५) यक्ष्म लसग्रन्थिपाक यह लसग्रन्थिपाक (lymphadenitis ) सदैव जीर्ण ( chronic ) प्रकार का होता है । यक्ष्मोपसर्ग प्रायः लसग्रन्थियों को लसधारा द्वारा प्राप्त होता है। इस रोग में लसग्रन्थि के बाह्यक ( cortex ) में क्षुद्र, पाण्डुर, धूसर, यदिमकाएँ उत्पन्न हो जाती है जो शनैः शनैः बढ़ती हैं उनमें किलाटीयन हो जाता है जो उपसर्ग को ग्रन्थि के मज्जक ( medulla ) तक ले जाता है। जब उपसर्ग बाह्यक और मज्जक दोनों भागों में पहुँचता है तो इसके कारण ग्रन्थिका आकार बढ़ने लगता है। महाकोशा प्रकार की जो औतिकीय चित्र ( histological picture ) अन्यत्र देखने में आता है वह यहाँ यक्ष्मा में पूर्णतः मिलता है अर्थात् जालकान्तश्छदीय परमचय यहाँ डट कर होता है जिसके साथ परिग्रन्थिपाक (periadenitis) किलाटीयन, चूर्णीयन तथा तरलन की क्रियाएँ भी चलती है। एक दूसरा प्रकार भी यक्ष्मलसग्रन्थिपाक का देखा जाता है जिसमें महाकोशादि का निर्माण नहीं होने पाता और न किलाटीयन ही होता है। यह प्रकार बहुत कम मिलता है और इसे प्रगुणनात्मक ( Proliferative ) प्रकार कह सकते हैं क्योंकि इसमें अन्तश्छदीय कोशाओं का परमचय या प्रगुणन बहुत होता है। परमचयित इन कोशाओं के समूह ग्रन्थि के अन्दर अनेक द्वीपिकाएँ ( islets ) बना लेते हैं। __यक्ष्मोपसर्ग के कारण प्रैविक ( cervical ), आन्त्रनिबन्धनीक (mesenteric) तथा फुफ्फुसान्तरालीय ( mediastinal ) लसग्रन्थियाँ अत्यधिक प्रभावित होती हैं । ग्रैविक ग्रन्थियों में तुण्डिका ग्रन्थियाँ ( tonsillar glands )मुख्य हैं । आन्त्रनि For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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