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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यक्षमा ५३१ बन्धनीक और ग्रैविक ग्रन्थियों में गव्य यक्ष्मकवकवेत्राणु द्वारा प्रथम उपसर्गनाभियाँ बनाई जाती हैं और इस कारण बालकों में यक्ष्मोपसर्ग होने पर वे बहुधा फूल जाती हैं। भारत में दुग्धपान की प्रथा विभिन्न होने से हमारे यहाँ प्रैविक और आन्त्र निबन्धनीक ग्रन्थियों में भी उपसर्ग मानवी प्रकार के यक्ष्मकवकवेत्राणु द्वारा ही होता हुआ देखा जाता है इसी कारण यहाँ वे न केवल बालकों में ही अपि तु वयस्क स्त्रीपुरुषों में भी प्रभावित प्रायः मिलती है। फुफ्फुसान्तरालीय लसग्रन्थियों पर मानवी प्रकार द्वारा ही विक्षत बनाए जाते हैं। प्रारम्भ में जब उपसर्ग लगता है तो लसग्रन्थियाँ दृढ और पृथक पृथक रहती हैं । आगे चलकर जब परिलसग्रन्थिपाक ( periadenitis ) होता है तो प्रन्थियों के प्रावर ( capsules ) फूल फूल कर एक दूसरे से मिल जाते हैं। आगे जब इन प्रन्थियों में तरलन होता है तो तरल स्थान बनाकर त्वचा तक आ जाता है और एक शीतविद्रधि उत्पन्न हो जाती है। उसके फूटने पर एक नाडीव्रण बन जाता है जिसका रोपण होना अत्यन्त कठिन कार्य होता है। उस नाडीव्रण में पूयजनक जीवाणुओं द्वारा उत्तरजात उपसर्ग लगने से वहां पर पूयोत्पत्ति भी हो जाती है । ____ औदरिक यक्ष्मा में आन्त्रनिबन्धनीक ग्रन्थियों में उपसर्ग के कारण आन्त्रनिबन्धनीककार्य ( tabes mesenterica ) उत्पन्न होता है जिसके साथ एक जीर्ण व्याधि लग जाती है जिसके कारण रह रह कर वमी होती और तीव्र दौरे पड़ते हैं और ऐसा लगता है कि मानो पूयजनक जीवाणुजन्य उदरच्छद का तीव्रोपसर्ग हो गया हो। ____ यक्ष्म तुण्डिकापाक बहुधा नहीं देखा जाता यद्यपि गव्यकवकवेत्राणु का प्राथमिक प्रवेश इन्हीं ग्रन्थियों में होकर होता है। मिचैल का कथन है कि उसने ग्रैविक लसग्रन्थियों के यक्ष्मोपसर्ग से पीडित ३० प्रतिशत व्यक्तियों में यदम तुण्डिकापाक ( tuberculous tonsillitis ) देखा है। यक्ष्मस्वरयन्त्रपाक ___ यक्ष्मस्वरयन्त्रपाक (tuberculous laryngitis या laryngeal phthisis) फौफ्फुसिक यक्ष्मा के पश्चात् होने वाला उत्तरजात रोग है और उसका कारण यस्मोपसृष्ट ठीव होता है। यह रोग उपअधिच्छदीय यदिमकाओं के रूप में प्रारम्भ होता है जो घाटिका अधिजिबिकीय बलियों ( ary taeno-epiglottic folds ), स्वरतन्त्री (vocal cords ) तथा अधिजिह्वा ( epiglottis ) के अधस्तल पर बनती हैं। इनकी संख्या अल्पाधिक कुछ भी हो सकती है। इनका या तो वणन होता है या ये प्रसर भरमार करती हैं जिसके कारण घाटिका अधिजितिकीय बलि में एक पार्श्व पर नाशपाती के समान एक बड़ी फैली हुई सूजन देखी जाती है। जब ये विक्षत किलाटीयन करके व्रण में परिणत हो जाते हैं तो स्वर रूक्ष ( husky ) हो जाता For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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