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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यदमा ५२६ करने में असमर्थ हो जाती है। यदि सन्धिगुहा से त्वचा तक कोई नाडीव्रण बन जावे और उसमें होकर पूयजनक जीवाणुसन्धि में प्रवेश कर लें तो उसके कारण अस्थीय सन्धान (bony ankylosis) होकर सन्धि पूर्णतः स्थिर हो जाती है । विना वास्तविक पूयोत्पत्ति के अस्थीयसन्धान असम्भव है। यह कभी न भूलना चाहिए कि अस्थि-सन्धीय यक्ष्मा यदि सर्वाङ्गीण श्यामाकसम यमा के कारण हुई है तो मृत्यु हो जा सकती है। सर्वसामान्य विमेदाभीय विहास (generalised amyloid degeneration ) होकर भी मृत्यु हो सकती है पर वह बहुत कम होती है। (३) यक्ष्म परिहृत्पाक यह बहुत अधिक होने वाला रोग नहीं है। यक्ष्मशाकाणुरक्तता ( tuberculous bacteraemia ) के कारण या फुफ्फुसान्तरालीय लसग्रन्थियों से प्रसार करके परिहृत् ( pericardium ) में पहुँचता है। अन्य लस्य यक्ष्मोपसर्गों की भाँति यह आई ( wet ) या शुष्क ( dry ) कोई भी रूप ले सकता है। आई में यक्ष्म उत्स्यन्दन मिलता है तथा श्यामाकसम यदिमकाएँ देखी जा सकती हैं तथा शुष्क में तन्त्विमत् अभिलाग (fibrinous adhesions ) मिलते हैं जो आगे चल कर पूर्णतः तान्तव हो सकते हैं। जो उत्स्यन्द होता है वह पूर्णतः स्वच्छ भी हो सकता है, कभी-कभी आविल भी हो सकता है, कभी उसमें थोड़ा रक्त भी देखा जा सकता है और कभी पूर्णतः रक्तमय भी हो सकता है। यक्ष्म धमन्यन्तश्छदपाक यक्ष्मा में दो प्रकार के वाहिन्यविक्षत (vascular lesions) देखने को मिल सकते हैं । एक वह जिसमें बाहर से वाहिनीप्राचीर पर कणनऊति आक्रमण करके वाहिनीप्राचीर को विदीर्ण करके उसके भीतर बढ़ती हुई उसके उपान्तश्चोल ( sub intima ) में एक यचिमका उत्पन्न कर देती है जो कालान्तर में बढ़ती हुई एक समय वाहिनी के भीतरी भाग में फट जाती है जिसके कारण यक्ष्मोपसर्गसंसृष्ट बहुत सा अपद्रव्य रक्तधारा में मिल जाता है। इस प्रक्रिया के कारण वाहिनीप्राचीर बहुत दुर्बल हो जाती है और उसमें सिराजग्रन्थि (aneurysm) उत्पन्न होता हुआ देखा जा सकता है। ऐसी सिराजग्रन्थि फुफ्फुसस्थ वाहिनियों में उत्पन्न हो सकती है जिसके विदीर्ण होने से गम्भीर रक्तस्राव होता हुआ देखा जा सकता है। दूसरा वह जो किसी यमविक्षत के समीप वास्तविक प्रगुणनात्मक अन्तश्छदपाक ( true proliferative endarteritis ) रूप में देखा जाता है और जिसे हम अभिलोपी अन्तश्छदपाक (obhterative endarteritis) - ४५,४६ वि० For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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