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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्रणशोथ या शोफ या हीन प्रकार का प्रोभूजिन नष्ट होगा । सर्वप्रथम लसशुक्लि (serum albumen ) नष्ट होती है । वह प्ररस से निकल कर ऊतियों में चली जाती है। इस प्रोभूजिन का सबसे छोटा व्यूहाणु होता है। उसके बाद बड़े व्यूहाणु (molecule ) वाली प्रोभूजिनें चलती हैं । जिनमें तन्त्विजन ( fibrogen) मुख्य है। शुक्लि की उपस्थिति के कारण अतियों में वह वर्तुलि (globulin) से चारगुना अधिक आसृतीय निपीड़ डालने में समर्थ होती है। पर उसके निकल जाने से प्ररस का निपीड़ घटता है और उतियों का बढ़ता है । इससे जलसंचय खूब होता है । व्रणशोथात्मक जलसंचिति के २ स्पष्ट कारण हमें ऊपर के वर्णन से प्राप्त होते हैं। एक कारण वह जिसमें रक्तवाहिनियों से रक्तरस का गमन ऊतियों की ओर होता है। जिसमें केशालों की क्षति, आसृतीय निपीड़ के स्थानिक परिवर्तन और ऊतियों का प्रतिरोध आता है। दूसरा कारण वह जिसमें लसवहाओं को संचित जल को समेटने की शक्ति नष्ट हो जाती है साथ ही सिरा द्वारा पुनः प्रचूषण की स्वाभाविक विधि भो समाप्तप्राय हो जाती है। जतियों में जलसंचय का कारण विभिन्न भौतिक-रासायनिक कारक हैं । पर साथ ही इसका एक महत्त्व भी है कि जो जीवाणु शरीर के इस भाग में अपना विषैला प्रभाव करके शरीर को विषमय कर रहे थे उनका वह विष अत्यधिक जलराशि में घुल कर अल्पप्रभावी रह जाता है। जिसके कारण भक्षकायाणु (phagocytes) उन पर अपना कार्य सरलता से करने में समर्थ होते हैं। एक और भी बात यह है कि यह सम्पूर्ण जलराशि रक्त से आती है । अतः उसके साथ जीवाणुनाशकतत्व भी प्रचुर परिमाण में मिले चले आते हैं । ऊतियों में संचित जल का आपेक्षिक घनत्व १०१५ से ऊपर होता है । उसमें ३ प्रतिशत तक प्रोभूजिन होती है। प्रोभूजिनों में शुक्लि, कूटवर्तुलि ( pseudo globulin ), सुवर्तुलि ( euglobulin ) और तन्त्विजन ऊतियों की क्षति के अनुपात में एक के बाद दूसरी मिलती हैं । जहाँ व्रणशोथ अल्प रहता है वहाँ प्रथम दो देखी जाती हैं। जहाँ व्रणशोथ अधिक होता है अन्य भी मिल जाती हैं। एक बात और है कि विभिन्न अंगों में संचित जल में विभिन्न मात्रा में ही प्रोभूजिन मिलती है । फुफ्फुसच्छदीय स्रावों (pleural exudates) में वे अधिक मात्रा में होती हैं। उदरच्छदीय स्रावों में कम तथा मस्तिष्कच्छदीय नावों में तो बहुत कम मात्रा में मिलती हैं। उपत्वक ऊतियों ( subcutaneous tissues ) में तो ये सबसे कम मिलती हैं। व्रणशोथीय जल कोशाओं और रक्त के कणों की कमीबेशी के अनुसार उपलभासी (opalescent) या मेघसम होता है। कहीं वह केवल लससम (serous), कहीं लसपूयीय ( sero-purulent ) और कहीं पूर्णतः पूयीय मिलता है। यदि यह जल थोड़ी देर किसी परखनली में भर कर रख दिया जाय तो उसका आतंच (clot) बन जाता है । यह आतंच जल में व्याप्त तन्त्विजन की मात्रा पर निर्भर होता है। इस जल में For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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