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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १२ विकृतिविज्ञान arateकारी जीवाणुओं को भी देखा जा सकता है और उनका संवर्धन ( culture ) भी किया जा सकता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्विजन का महत्त्व - तन्त्विजन एक प्रोभूजिन है। वह भी अन्य प्रोभूजिनों की तरह अधिक क्षति होने पर व्रणशोथीय जल में देखी जाती है । ऊतियों में कई आतंचि द्रव्य ( coagulins ) होते हैं जिनके सम्पर्क से वह आतंचित हो जाती है। और अब वह तन्त्वि ( fibrin) कहलाती है । तन्वि ऊतियों में जालिका ( reticulum ) के रूप में निस्सादित होकर संचित हो जाती है । उदरच्छदादि में जहाँ जलसंचय होता है वहाँ तो इसका कुछ महत्त्व देखा नहीं जाता । परन्तु विधियों की सीमाओं पर जो एक पूयजनिक कला ( pyogenic membrane ) देखी जाती है जो उपसर्ग को सीमित करने में बहुत कार्य करती है वह इसी तन्वि से बनती है । यहीं पर जीवाणुओं पर शरीर की ओर से तगड़ा प्रहार करने के लिए भक्षकायाणु तैयारी करते हैं । मेङ्किन स्वयं इसमें विश्वास करते हैं कि यह तत्विजालिका का स्तर उपसर्ग के प्रतिरोध में अवश्य कार्य करता है। यही नहीं, वह यह भी बतलाते हैं कि जीवाणुओं की आक्रमण करने वाली शक्ति निर्भर ही इस पर रहती है कि वे इस तत्व के निर्माण में कहाँ तक सहायता करते हैं। उदाहरण के लिये पुंजगोलाणु ( staphylococci ) तन्त्विनिर्माण में सहायक सिद्ध होते देखे गये हैं तथा मालागोलाणु ( streptococci ) तन्विनिर्माण कार्य रोकते हैं । रिच नामक विद्वान् तत्व के इस महत्व को स्वीकार नहीं करते वह उपसर्ग को रोकने में सहायक प्रसमूहियों ( agglutinins ) को मानते हैं । रक्त के साथ कण भी संचित जल में प्रगट होते देखे गये हैं पर उनका कोई विशेष महत्त्व नहीं है । केशालों में रक्त की स्थिरता होने के कारण वहाँ घनास्त्रता हो सकती है और विनाश वा शोथ मिल सकता है I व्रणशोथोत्पत्ति और शारीर - कोशाएँ व्रणशोथ की उत्पत्ति में रक्त क्या भाग लेता है उसे विस्तार से समझा दिया गया है अब यह समझना आवश्यक है कि शारीरिक कोशाओं द्वारा व्रणशोथात्मक प्रतिक्रिया में कहाँ तक सहयोग मिलता है । पुरुखण्डन्यष्टि कोशाओं का पार्श्वगमन ( margination of polymorphonuclear cells ) – ज्यों ही रक्तप्रवाहगति मन्द पड़ती है त्यों ही रक्त के सितकोशा या पुरुखण्डन्यष्टिकोशा रक्तधारा को छोड़ कर वाहिनीप्राचीर के पार्श्वों की ओर गमन करने लगते हैं । इसी को उनका पार्श्वगमन ( margination ) कहा जाता है । यह कार्य वे बहुत धीरे-धीरे करते हैं । पुरुखण्डन्यष्टि कोशाओं का बहिर्गमन - वाहिनीप्राचीर के समीप आने के उपरान्त सितकोशाप्राचीर की टूटी-फूटी दशा से लाभ उठाते हैं । जह पर टूट-फूट अधिक होती है और बाहर की ओर जाने के लिए तनिक भी स्थान देखते हैं वे अपने For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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