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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान से वह स्थान कार्यक्षम भी नहीं रहता। व्रणशोथ के सामान्य लिङ्ग जो पहले बता चुके हैं वे क्यों होते हैं ? वे यहाँ भले प्रकार समझे जा सकते हैं। व्रणशोथात्मक जलसचय क्यों होता है ? जिस प्रकार क्षतिग्रस्त स्थान में पहले पहल रक्तप्रवाह बढ़ जाता है उसी प्रकार उस रक्त को लौटा कर सिराओं में रक्त ले जाने वाली लसवहाओं की गति भी प्रारम्भ में बढ़ जाती है तथा अन्य कई नई लसवहाओं के मुख भी खुल जाते हैं, जिसके कारण पर्याप्त मात्रा में रक्त लौटने लगता है । परन्तु जिस प्रकार केशालों की प्राचीरों का घात होता है उसी प्रकार लसवहाओं की प्राचीरें भी विस्तृत हो जाती हैं और उनकी अतिवेध्यता ( permeability ) भी बढ़ जाती है । जिसके कारण कुछ समय पश्चात् लसप्रवाह भी कम हो जाता है । कुछ समय पश्चात् लस में प्रोभूजिन की मात्रा अधिक हो जाती है अतः तन्त्विजन की उपस्थिति लसवहा में घनास्रता ( thrombosis ) उत्पन्न कर देती है। उनमें रक्त के श्वेतकण तथा लालकण भी देखे जाते हैं। इन्हीं सब कारणों से ऊतियों में स्थित जलसंचय को घटाने में लसवाहिनियाँ असमर्थ हो जाती हैं और उनके द्वारा बहुत कम जल बाहर जा पाता है। ___ लसवहाओं द्वारा संचित जल की राशि को बहा ले जाने में रुकावट होने के कारण के अतिरिक्त ऊतियों में जलसंचय के निम्न महत्त्वपूर्ण कारण हैं १. क्षतिग्रस्त कोशाओं का त्रोटन ( break-down of the damaged cells)-क्षतिग्रस्त कोशा जब टूटने फूटने लगते हैं तो उस क्षेत्र के अतितरल में व्यूहाणुओं का संकेन्द्रण होने लगता है जिसके कारण ऊतितरल का आसृतीय निपीड ( osmotic pressure ) बढ़ने लगता है। इसके बढ़ने से रक्तवाहिनियों से जलीयांश भाग निकल निकल कर ऊतियों को भरने लगता है। २. केशाल अन्तश्छद में परिवर्तन ( change in the endothelium of the capillaries)-जब रक्त का प्रवाह केशालों में रुक जाता है तो वहाँ औक्सीजन (जारक) की कमी होने लगती है इस कारण केशाल प्राचीर में भी अजारकरक्तता (anoxemia) हो जाती है। शरीरस्थ किसी भी अति को जब जारक की पूर्ति नहीं होती तो वह बिगड़ने लगता है। केशाल का अन्तश्छद जारक के अभाव में क्षतिग्रस्त होजाता है। जारक की कमी का दूसरा परिणाम अम्लोल्कर्ष (acidosis) में होता है। अम्लोत्कर्ष का परिणाम केशालों की प्रवेश्यता वा अतिवेध्यता (permeability ) बढ़ाने में होता है । ३. प्ररस प्रोभूजिनों की हानि ( loss of plasma proteins) केशाल प्राचीरों में होकर जब रक्त का तरल और उसके साथ उसकी प्रोभूजिने भी ऊतिजल में मिल जाती हैं तो रक्त के प्ररस की प्रोभूजिनें कम हो जाती हैं। जिनके कारण रक्तरस का श्लेषाभ आसृतीय निपीड घट जाता है और ऊतिरस में वही बढ़ जाता है। जितना अधिक केशाल प्राचीर विनष्ट होजाता है उसी अनुपात से और वैसा ही उच्च For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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