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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ४८ कारण कालाजार ज्वर की तरह श्लिषक और अंजन की कसौटियाँ ईषद् व्यक्त मिलती हैं। उसी के कारण लालकणावसादन गति तेज हो जाती है। लालकणों का पर्याप्त नाश हो जाता है जिससे रक्तरस में अयस् , दहातु ( पोटाशियम) और पित्तरक्ति ( bilirubin ) की अधिकता पाई जाती है। पित्तरक्ति की अधिकता की परीक्षा फानडेनवर्ग की कसौठी के अप्रत्यक्षतया व्यक्त होने से की जाती है। कामलादेशना ( icterus index ) के अधिक मिलने से भी इसकी परीक्षा कर ली जा सकती है। अग्न्याशय, अधिवृक्क और यकृत् में खराबी के परिणामस्वरूप रक्तशर्करा की मात्रा बढ़ जाती है। पर आगे चलकर वह शनैः शनैः घटने लगती है । पैत्तव की भी मात्रा घट जाती है । डा. घाणेकर का कथन है कि मलेरिया की तीव्रावस्था में वासरमेन और काहन की कसौटियाँ तक व्यक्त हो जाती हैं। ऐसा क्यों होता है उसका कोई कारण अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। ___ १०-कालमेहज्वर ( Black Water fever ) इसे विषमज्वर शोणवर्तुलिमेह ( malarial haemoglobinuria) या मेचकमहज्वर ( melanurie fever ) भी कहते हैं। इस रोग का क्या कारण है उसके सम्बन्ध में अभी तक शङ्काएँ हैं पर यतः इसका विषमज्वर से घनिष्ट सम्बन्ध है तथा उन्हीं व्यक्तियों को होता है जिन्हें विषमज्वर का आक्रमण हो चुका हो, मारात्मक विषमज्वर के लक्षणों के साथ इसके लक्षण मिलते हैं तथा विषमज्वर के ही काल में उत्पन्न होता है अतः इसका कारण भी विषमज्वरकारी कीटाणु हो सकता है। यदि उचित और युक्तियुक्त कहने का मूल्य हो तो यह रोग किनीन के अतिमात्र प्रयोग का परिणाम कहा जा सकता है। जो विनीन नहीं लेते उनमें यह बहुत ही कम पाया जाता है। __ जीवरासायनिक परीक्षाओं के आधार पर ऐसा सिद्ध हुआ है कि कालमेहज्वर मारात्मकविषमज्वर का ही एक अत्युग्र और अतिशायी रूप है। मारात्मकविषमज्वर की अपेक्षा जो विशेषता इसमें पाई जाती है वह है अत्यधिक शोणांशन ( haemo lysis) का होना । शोणांशन का कारण अभी तक अज्ञात है। लोगों का विचार है कि शोणांशन करने वाले तत्व प्लीहा में संचित रहते हैं। प्लीहा के संकोच के साथ ही साथ वे भी रक्त में भ्रमण के लिए निकल पड़ते हैं और लालकणों का नाश करने लगते हैं। रक्त में अम्लोत्कर्ष होने से भी शोणांशन हो जाता है। अतीसार, प्रवाहिका, रक्तक्षय, सर्दी-गर्मी, भीगना, अधिक परिश्रम, मद्यसेवन आदि कारण भी अम्लोत्कर्ष कारी होते हैं। एक मत यह भी है कि मानवीय ऊतियों में शोणांशनकारी एक तत्व सदैव बना रहता है जिसे व्यंशि (lytic) कहते हैं। ठीक इसका विरोधी तत्व रक्त में रहता है जिसकी उपस्थिति के कारण ही व्यंशि अपने कार्य को करने में समर्थ नहीं हो पाता। इस रोग में किसी भी कारण से कहीं से रक्त वा रक्त से व्यंशिविरोधी तत्व समाप्त हो जाता है इस कारण व्यंशि खूब मनमानी घरजानी करता है और लाल कणों को डट कर गलाता है। कुछ का यह मत भी है कि यकृत् में खराबी हो जाने के कारण वह अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाता है और लालकण गलने लगते हैं । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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