SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 550
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८४ विकृतिविज्ञान जाना- • कायाणु अप्रगल्भ होते हैं जिनमें विषम ज्वर कीटाणु बड़े प्रेम से प्रवेश पा जाता है और सरलता से उनका नाश कर देता है । इसके कारण रक्तहीनता या रक्तक्षय लगातार चलता और बढ़ता रहता है । लाल कर्णों की इस कमी को अल्परुधिर कायानुरक्तता ( oligocythaemia ) कहा जाता है। लाल कणों की आकृति परिमिति और रंग ग्रहण करने की शक्ति इन तीनों में परिवर्तन होने के कारण लाल कर्णों का टेढ़ा हो - प्रविधकायाणूत्कर्ष (poikilocytosis ), कर्णो का छोटा-मोटा हो जाना( anisocytosis ), बहुवर्णप्रियता ( polychromatophilia ) और क्षारप्रियकणिका भवन (basophilic stippling ) आदि रक्ततय के चिह्न प्रगट हो जाते हैं । क्षारप्रियकणिकाभवन के कारण लालकणों के अन्दर नीले रंग के छोटे-छोटे दाने दिखलाई देते हैं जो विषमज्वरोपसर्ग समाप्त होने के बाद तक मिलते हैं और सुप्त उपसर्ग या भूत उपसर्ग की सूचना देते हैं। लालकणों की शोणवर्तुलि के विनाश के कारण उनकी रंगदेशना ( colour index ) एक से कम हो जाती है । उपसृष्ट लालकर्णी में कुछ कणिकाएँ भी पाई जाती हैं । मारात्मक विषमज्वर में वे माररकणिकाएँ ( maurer's ), तृतीयक में शूफनर की और चातुर्थक में झीमन ( ziemann ) की कहलाती हैं । चातुर्थक और मारात्मक के लालकण तृतीयक के • लालकणों की अपेक्षा कुछ छोटे होते हैं। (२) श्वेत कणों में परिवर्तन - ज्वरावेगकाल में श्वेतकणों की संख्या निर्ज्वरावस्था की अपेक्षा बढ़ी हुई देखी जाती है । यदि साथ में आन्त्रस्थ लक्षण भी हों तो मारात्मक उपसर्ग में इनकी संख्या और भी बढ़ जाती है । निर्ज्वरकाल में यह संख्या डा० वाणेकर के अनुसार इसे ५ सहस्र तक कम हो जाती है जिसके कारण श्वेतकण तथा लालकर्णी का स्वस्थावस्था का १ : ७०० का अनुपात १ : ९०० हो जाता है । जीर्ण विषमज्वर में श्वेतकायाण्वपकर्ष इतना अधिक और इतना स्थायी नहीं पाया जाता । जैसा कि कालाजार में हमने देखा है विषमज्वर में भी एकन्यष्टि श्वेतकण ( mononuclears) तथा एक कायाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है । शीत लगते समय और ज्वर के आरंभ काल में इनकी संख्या घटकर निर्ज्वरावस्था आने पर १५ - २०% तक बढ़कर सप्ताह तक वैसी ही रही आती है ( घाणेकर ) । जब एक कायाणु -बढ़ते हैं तो बह्नाकारी ( polymorph ) घट जाते हैं। एक कायाणु ४० से ४५ प्रतिशत तक बढ़ जाते हैं। एक कायाणु एक भक्षक कोशा है अतः उसके अन्दर · रागक के कण पाये जा सकते हैं इन कणों के मिलने पर मलेरिया का निदान सरलता से हो जाया करता है । जिन रोगियों में विषमता अधिक होती है वहाँ ज्वरावेगकाल • में बह्वाकारी भी ७५-८०% तक सापेक्षगणन पर मिल सकते हैं । (३) रासायनिक परिवर्तन - रक्त के अन्दर जीवरासायनिक ( biological ) कई परिवर्तन देखने में आते हैं । सर्वप्रथम तो कुल प्रोभूजिनों की राशि का कम होना है। शुक्ल की राशि की कमी के कारण यह घटोतरी हुआ करती है । वर्तुलि की वृद्धि हुआ करती है जिससे शुक्तिः वर्तुलि अनुपात १ : १ का हो जाता है । वर्तुल वृद्धि के For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy