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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५६ विकृतिविज्ञान ___ इस रोग में सर्वाधिक विकृति रक्त में पाई जाती है। लालकणों के नष्ट होने के कारण उनकी संख्या सामान्य रोग में ५० प्रतिशत तथा तीव्र में ८०% एवं स्फूर्जक में ९०” तक २४ घण्टे के अन्दर नष्ट हो जाती है। रक्तरस में शोणवर्तुलि स्वतन्त्र रूप में मिलती है जिसके आधार पर इसे शोणवर्तुलिरक्तता ( haemoglobinaemia) कहते हैं। शोणवर्तुलि आरम्भ में जारक (oxygen) पर बाद में सम (meta) तथा समशोणशुक्लि ( methaemalbumin ) में बदल जाती है। शोणवर्तुलि मूत्र द्वारा कदापि बाहर नहीं आता पर जब इसकी राशि साथ में अत्यधिक हो जाती है तो फिर वृक्कों द्वारा इसे मूत्र में उत्सृष्ट किया जाया करता है। इसी के कारण इस रोग को शोणवर्तुलिमेह ( haemoglobinuria) कहा जाता है । इसका रंग काला होने के कारण इसे कालमेह कहा जाता है। शोणवर्तुलि की अधिकता के कारण जालकान्तश्छदीयसंस्थान उसे पित्तरक्ति में परिणत करता है यह पित्तरक्ति नं० १ होती है इसे यकृत् मात्राधिक्य के कारण नं. २ में परिणत करने में असमर्थ रहता है इसके कारण पित्तरक्तिमयता ( bilirubinaemia) उत्पन्न हो जाती है। इसके कारण पित्तरागक रक्त में उपस्थित होकर त्वचा को पीला बनाता हुआ कामला उत्पन्न कर देता है । यहाँ फानडेनवर्ग प्रतिक्रिया परोक्षव्यक्त होती है। रक्त में मिह (यूरिया) भी बढ़ने लगता है जो मूत्राघात का सूचक लक्षण है। ___ इस रोग में रक्त में शोणवर्तुलि. पित्तरक्ति, मिह, समशोणशुक्लि पाई जाती हैं। रक्त पतला और उसमें क्षार संचिति कम मिलती है क्षारीयता घटने लगती है। रोग के ठीक होने के साथ-साथ रक्त में न्यष्टीलायुक्त लालकण (nucleated erythrocytes) मिलते हैं जालककायाणु एवं एककायाणु ये दोनों क्रमशः २५% और १२% तक बढ़े हुए दिखे जाते हैं। प्लीहा में लालकों का व्यंशन और शोणवर्तुलिका का विनियोग करने के लिए जालकान्तश्छदीयकोशाओं की वृद्धि होती है। इन कोशाओं में टूटे-फूटे लालकण और रागक भरा रहता है। इसे शोणभक्षण (haematophagy) कहते हैं। इससे प्लीहाभिवृद्धि होती है। यकृत् में भी जालकान्तश्छदीय संस्थान के कोशा अभिवृद्धि करते हैं और उनमें रागक भरा रहता है। यकृत् में पित्त की उत्पत्ति बढ़ जाने से आन्त्र में, पित्ताशय में तथा यकृत् की पित्त कानालिकाओं में वह खूब भरा रहता है। कालमेहज्वर में वृक्कों की खास करके विकृति पाई जाती है। उनका रंग काला, भूरा, नीला सा होता है। उनमें अधिरक्तता पाई जाती है। वृक्क की गुच्छिकाओं और प्रथम कुण्डलिकाओं में विकार नहीं मिलता द्वितीय कुण्डलिकाएं और उसके आगे की नालिकाओं में विकृति सर्वाधिक होती है। इस विकार में नालिकाएं काचरीय ( hya. line ) तथा कोशिकीय (cellular) निर्मोकों से भर जाती हैं। निर्मोकों के कारण मूत्र नालिकाएँ पूरी या अंशतः अवरुद्ध हो जाती हैं जिसके कारण अल्पमूत्रमेह (oliguria) या अमूत्रमेह ( anuria) की स्थिति उत्पन्न हो जाती है इस अवरोध के अतिरिक्त वृक्कों में रक्त की कमी अथवा उस कमी के कारण उत्पन्न अजारकता ( anoxia) For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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