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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ४७७ (क) रक्त की क्षारीयता का घटना । (ख) रक्त में चूर्णातु ( calcium ) की मात्रा का घटना और उसके कारण उपचूर्णरक्तता ( hypooaloaemia ) का हो जाना । (ग) शुक्लवलि के अनुपात में अन्तर होना ४.५% शुक्ति २% वर्तुलि २.८% शु० ४% व० पाई जाती है । स्वस्थ में- कालाजार में - ८ - विषमज्वर ( Malaria ) - या जूड़ी बुखार प्लाज्मोडियम जाति के कीटाणु यह कीटाणु अपने वंश को चलाने भीतर मैथुनी तथा अमैथुनी चक्र के द्वारा फैलता है जिसकी कई जातियाँ होती हैं । के लिए मच्छर तथा मनुष्य इन दो प्राणियों के रूप में परिवर्तित होकर पूर्ण प्रगल्भ हो पाता है । कालाजार की भांति विषमज्वर के कीटाणु भी ऊति में आश्रित रहनेवाले होते हैं । इनका निवासस्थल रक्त का लालकण होता है और वहाँ शोणवर्तलि नामक रंग द्रव्य का भक्षण करते रहते हैं । शोणभक्षण करते हैं इस कारण इन्हें शोणकीटाणु ( haematozoa ) नाम से भी सम्बोधित किया जाता है । मच्छर के काटने से मच्छर की लार द्वारा कीटाणुओं का क्षुल्लकेत नामक रूप ( sporozoite ) शीघ्र ही रक्त के लालकर्णी पर आक्रमण करके अपना मनुष्य शरीरान्तर्गत अमैथुनी चक्र आरम्भ करते हैं । वे लालकर्णी में निहित शोणवर्तुलिका I भक्षण करते जाते हैं और । पुनः पुनः नये लालकण में प्रवेश पाते रहते हैं । इस तरह लालकणों का नाश और कीटाणुओं की वृद्धि डाक्टर घाणेकर के मत से ज्वारभाटा की तरह शरीर में बराबर जारी रहते हैं । एक कीटाणु लालकण में प्रवेश करके अपनी उपजाति के अनुसार १० से लेकर ३२ नये कीटाणुओं की उत्पत्ति कर लेता है अनेकों को प्लीहा लालकण के साथ ही साथ नष्ट कर देती है चले गये कीटाणुओं के द्वारा शरीर के लालकणों का भण्डार दिया जावे। प्रत्येक समय ३ या ४ लालकण बच पाते हैं पनपता रहकर अपने अमैथुनी चक्र को पूर्ण किया करता है इन कीटाणुओं में से अन्यथा तो नये बनते कभी का नष्ट-भ्रष्ट कर विषमज्वरकारी कीटाणु 1 आ सकता है जब प्रति एक लाख इस दृष्टि से एक प्रौढ़ व्यक्ति में जिस समय उपसृष्ट लालकण फटते हैं और उनमें निहित कीटाणु रक्तरस में स्वतन्त्र होते हैं उस समय मनुष्य को जाड़ा देकर बुखार चढ़ता है । डाक्टर घाणेकर का कथन है कि जाड़ा देकर बुखार उसी अवस्था में लालकणों के पीछे एक लाल कण कीटाणूपसृष्ट हो । १५ करोड़ लालकण कीटाणूपसृष्ट होने आवश्यक हैं। लगता है वही सञ्चयकाल ( incubation period ) काल अमैथुनी चक्र का काल है जो अंशुकेतों ( merozoite ) की संख्या और उनकी प्रतीकारिता पर निर्भर रहा करता है । चातुर्थक के मैथुनी चक्र का काल लम्बा ७२ घण्टे का होता है अंशुकेतों की संख्या की अल्पता के कारण तथा क्षमता की कमी होने से सञ्चयकाल सबसे लम्बा हुआ करता है। मारक विषम ज्वर ( malignant malaria ) में अमैथुनी चक्र का काल सबसे छोटा होता है अंशुकेतों की संख्या सबसे इसके लिए जितना समय कहलाता है । यह सचय For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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