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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४७८ विकृतिविज्ञान अधिक होती है और क्षमता अधिक रहने के जाने के कारण उसका संचयकाल सबसे मध्यम रहने से ४८ घण्टे का ही संचय काल होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कारण अधिक संख्या में अंशुकेतों के बच छोटा होता है। तृतीयक में सभी बातें यह सत्य है कि कम से कम १५ करोड़ लाल कणों का उपसृष्ट होना जाड़ा बुखार बुलाने के लिए पर्याप्त है पर वास्तविकता यह है कि इस मर्यादा से कई सौ गुना अधिक लालकण विषमज्वरीय कीटाण्वभिभूत पाये जाते हैं । साधारणतया चातुर्थक में १ लाख के पीछे ५००, तृतीयक में २५०० और मारक में ५००० लालकण उपसृष्ट मिलते हैं । मारक में कभी-कभी तिहाई से आधे तक लालकणों का उपसर्ग हो जाता है । कहने का तात्पर्य यह कि जितने ही अधिक रक्त के लालकण उपसृष्ट होंगे मृत्यु की आशङ्का उतनी ही अधिक बढ़ेगी । मारक में ज्वर के वेग के साथ-साथ समस्त शरीर के लालकों का दसवें से लेकर पाँचवें भाग तक का खातमा हो सकता है । Tags में यह हानि सबसे कम होती है । लालकणों के नाश का परिणाम रक्तक्षय और शोणवर्तुल का ह्रास होता है जिसके कारण शरीर को उचित परिमाण में प्राणवायु नहीं पहुँच पाती । जिससे अजारकमयत । ( anoxaemia ) और हृदयादि मर्माङ्गों में अपजनन या विद्वास हो जाता है । विषमज्वर के कीटाणु जब अपने लालकणों की गोद में विश्राम लेते हैं तब वे न केवल जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद भी करते हैं बल्कि लालकर्णी के भक्षण से किट्ट के रूप में एक रागक तैयार करते हैं जिसे हीमोझाइन ( hemzoin ) कहा जा सकता है । यह रागक लालकर्णी के मध्य में सञ्चित होता रहता है और जब लालकण उसकी पुष्टि में संख्या वृद्धि हो ear है तब कीटाणुओं के साथ यह भी बाहर निर्गत हो जाता है । यह रागक एक प्रकार का विष है और जाड़े से जो बुखार आता है उसका यह कर्त्ता माना गया है । जिस प्रकार विजातोय प्रोभूजिनों के द्वारा ज्वर चढ़ता है वैसे ही यह भी विजातीय प्रोभूजिन के समान ही कार्य करता है शीत लग कर ज्वर आना तथा ज्वरावेग के समय श्वेतकायाणुओं की जाना होता है । रागक का प्रभाव उष्णता नियामक केन्द्र पर सीधा प्रभाव होकर भी ज्वरोत्पत्ति हो सकती है। वह रागक रक्त में स्वतन्त्र होने के उपरान्त जब पुनः अन्तश्छदीय कोशाओं द्वारा केशालों के अन्तःस्तर में प्रवेश पा जाता है तब उसके कण वहाँ भी लालकणों का नाश करते हुए वे केशालीय प्राचीर को विदीर्ण करके रक्तस्त्राव किया करते हैं । रागक के ये कण काले होते हैं जो प्लीहा में सञ्चित होते रहते हैं । हीमोझाइन को कई शास्त्रज्ञ शोणित ( hematin ) मानते हैं प्लीहादि अंगों में यह शोणिति पीत बभ्रु शोणायस्त्रि (haemosiderin ) तथा पीत शोणधूमलि ( haemofuscin ) में बदल जाती है । इन द्रव्यों की सञ्चिति का परिणाम इन अंगों के कालपीत या बभ्रुपीत वर्ण में होता है । इस प्रकार १-ज्वरोत्पत्ति, २ - शोणांशन ( haemolysis ) तथा ३ - आभ्यन्तरीय अंगों का रँगा जाना ये तीन कार्य हीमोझाइन करता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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