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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . . . ज्वर ४७३ रोगी के थूक में भी प्लेग के असंख्य जीवाणु देखे जाते हैं। थूक से हवा में मिलकर ये जीवाणु स्वस्थ व्यक्तियों पर आक्रमण करते हैं। ऐसी अवस्था में पिस्सू को प्लेग फैलाने में कष्ट नहीं करना पड़ता। रक्तगत परिवर्तनों का प्लेग में विचार करने पर निम्न विशेषताएँ मिल जाती हैं १-लालकणों की वृद्धि ६० लाख तक । २-श्वेत कणों की वृद्धि साधारणतया-२०००० तक पर प्लेग दोष मयता होने पर-६०००० तक। ३--बह्वाकारी श्वेतकणों की वृद्धि अधिक होती है। प्लेग का जीवाणु अन्तर्विषोत्पादक होता है अतः जितने जीवाणुओं का शरीर में नाश होता है उनका विष रक्त के द्वारा दौड़ता है जो रक्तवहाओं के अन्तःस्तर को नष्ट करके त्वचा, श्लेष्मलकला, लस्यकला तथा अन्य अंगों में रक्त का स्राव कर देता है। इसका विषैला परिणाम कोशाओं पर भी होता है। जिससे हृदय, मस्तिष्क, यकृत् तथा वृक्कादि अंगों में मेघसमशोथ तथा स्नैहिकविह्वास होता है। हृदय का दक्षिण भाग विस्फारित हो जाता है। प्लीहा का आकार स्वाभाविक से दो तीन गुना बढ़ जाता है वह अधिरक्तित तथा रक्तस्रावी हो जाती है। मस्तिष्कतानिकाएँ भी अधिरक्तित हो जाती हैं और मस्तिष्क में भी रक्तस्राव हो जा सकता है । फुफ्फुस में आरम्भ से श्वसनी फुफ्फुसपाक होता है जो बढ़कर पूरे एक खण्ड को भी ग्रस ले सकता है। फुफ्फुसच्छद में अधिरक्तता और रक्तिमा ( ecchymoses ) मिल सकती है। ___ ७-तरङ्गज्वर (Vudulant fever) इसे डा० घाणेकर ने अर्मिमान ज्वर माना है। इसे ब्रुसेलोसिस ( अपिगोलाणूत्कर्ष), माल्टाज्वर, भूमध्यसागरीयज्वर ( Mediterranean fever) आदि नामों से भी पुकारा जाता है । यह रोग ब्रसेल्लागण के मैलिटैन्सिस तथा अबोर्टस नामक दो दण्डाणुओं के द्वारा दो रूपों में देखा जाता है। ___ ० मैलीटैन्सिस माल्टा टापू की भेड़ बकरियों में गर्भपात कराने वाला रोग है । उस टापू की ५०% भेड़ बकरियाँ इससे पीड़ित होती हैं और उनके मलमूत्र, दुग्ध से यह दण्डाणु सदैव उत्सर्गित होता रहता है ब्रू. अबोटस गायों और शूकरी के अन्दर पाया जाता है और उनके मलमूत्र और दुग्ध द्वारा बराबर उत्सर्गित होता रहता है। दृषित दुग्धादि के सेवन करने से आन्त्र में और मल, मूत्र, माँसादि के सम्पर्क से स्वचा के व्रणों में पहुंचे हुए जीवाणु रक्त के द्वारा प्लीहा, लसग्रन्थियाँ, यकृत् , मजा आदि जालकान्तश्छदीय संस्थान के अङ्गों में जाकर वृद्धि करने लगते हैं। जब वे पर्याप्त बढ़ जाते हैं तो फिर वे रक्त के अन्दर ज्वर की लहरें या तरंगें पैदा करते हुए आते हैं। यह ज्वरतरंग या ज्वरोमि कई दिन रहती है। ऐसी ज्वरोमियाँ कई बार आती हैं । डा. घाणेकर के विचार से और जैसा कि प्राइस का भी मत है यह रोग एक कालिक तृणाणुमयता (chronic bacteraemia) है। इसमें प्लीहादि अंगों में जीवाणुओं के केन्द्र होते हैं जहाँ बीच बीच में तृणाणुमयता की ऊर्मियाँ निक For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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