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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७४ विकृतिविज्ञान लती रहती हैं । तृणाणुमयता के साथ साथ विषरकता ( toxaemia) भी रहती है। प्लीहा, लसग्रन्थियाँ, अस्थिमजा, यकृतादि अंगों में सदैव जीवाणु मिला करते हैं। पर रक्त में ये जीवाणु आरम्भ में कुछ काल तक मिलते हैं पर बाद में ज्यों ज्यों रक्त में प्रतियोगी उत्पन्न होते जाते हैं इनकी उपस्थिति कम होती जाती है। ___ प्लीहा में इस रोग के कारण मालपीषियन पिण्डों में शोथ होजाता है और लसाभ ऊति की वृद्धि होती है। इनके कारण प्लीहा बढ़ जाती है। वह मृदु और पिलपिली भी होजाती है पर आगे चलकर जब रोग बहुत बढ़ जाता है तब वह कठिन भी हो जासकती है। आन्त्रनिबन्धनी की लसप्रन्थियाँ भी प्रवृद्ध हो जाती हैं आसपास रक्तस्राव भी हो जाता है। बुद्रान्त्र के ये परीय सिध्मों में शोथ और व्रणोत्पत्ति हो जाती है साथ ही यकृत् वृक्क, फुफ्फुस, मस्तिष्क, वृषण, स्तन, अस्थिमज्जा, योनि, बीजाधार (ovary), बीजवाहिनी, आदि अंगों में भी व्रणशोथ हो जाता है । आन्त्र और वृक्क उपसृष्ट होने के कारण रुग्णव्यक्ति के मल और मूत्र में जीवाणुओं की उपस्थिति पाई जा सकतो है। यकृत, वृक्क और फुफ्फुसाधारों पर अधिरकता देखी जाती है। प्लीहा का वजन २० औंसतक हो जाता है। ८-कालज्वर-इसे कालाजार, डम डम ज्वर, वर्धमान ज्वर, उष्णकटिबन्धज प्लीहाभिवृद्धि गम्भीर या आशयिक लीशमैनीयासिस (visceral leishmaniasis) आदि नामों से पुकारा जाता है। यह उष्णकटिबन्धज रोग है जो लीशमन डोनोवनी नामक कीटाणु के उपसर्ग से उत्पन्न होता है। यह एक जीर्ण स्वरूप का रोग है और इसका प्रत्यक्ष प्रभाव जालकान्तश्छदीय संस्थान पर पड़ा करता है। यह रोग फ्लैबोटोमस जाति के एक भुनगे के द्वारा उत्पन्न होता है। कालाजार का कीटाणु भुनगे के दंश के द्वारा मनुष्यशरीर में प्रवेश करता है। दंश स्थली से त्वचा में पहुँच कर वह स्थानिक केशालों के अन्तश्छदीय कोशाओं ( endothelial cella ) में प्रवेश कर जाता है। यहीं पर यह कीटाणु अपनी संख्याभिवृद्धि करता है जिसके कारण वे कोशा फूलने लगते हैं फूलते-फूलते उनमें कुछ विदीर्ण भी हो जाते हैं जिसके कारण कीटाणु रक्त में स्वतन्त्र हो जाते हैं। स्वतन्त्र कीटाणु पुनः नये कोशाओं में घुस जाते हैं। कुछ कोशा तो अपने कीटाणुओं से लदे हुए भी स्वतन्त्र होकर रक्त में चल पड़ते हैं जिन्हें रक्त के एक कायाणु भक्षित कर लेते हैं । अतः कालाजार के कीटाणुओं का रक्तवहाओं के अन्तश्छदीय कोशाओं से निकट का सम्बन्ध आता है। तथा एक कीटाणुओं से भी अच्छा सम्बन्ध पड़ता है। अन्तश्छद और एककायाणु ये दोनों ही जालकान्तश्छदीय संस्थान के अन्तर्गत आते हैं जो सम्पूर्ण शरीर में इतस्ततः बिखरा हुआ है। एक कायाणु में प्रविष्ट कालाजार के कीटाणु उनके द्वारा भक्षित न होकर पनपते हैं इसके कारण जालकान्तश्छदीय संस्थान के कोशा इन कीटाणुओं से डट कर भर जाते हैं । ये कोशा भी अपनी अभिवृद्धि करते हैं परिणाम यह होता है कि जालकान्तश्छदीय संस्थान के अन्तर्गत आने वाले अङ्गों की केशाल पूरी या अधूरी अवरुद्ध हो जाया करती हैं जिसके कारण वे अंग आकार में बढ़ जाते हैं For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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