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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७२ विकृतिविज्ञान कोशोत्पत्ति हो जाती है। अब जो व्रण बनता है वह कारबङ्किल के समान होता है। इस व्रण में प्लेग के असंख्य जीवाणु भरे होते हैं यह स्थानिक व्रण डा. घाणेकर के अनुसार ५-१० प्रतिशत रुग्णों में ही दिखलाई देता है। पर जिनमें क्षमताशक्ति का प्रकार मध्यम होता है दंशस्थान से सम्बद्ध लसग्रन्थियाँ फूल जाती हैं। दंशस्थली से प्लेग के जीवाणु लसवहाओं द्वारा इन ग्रन्थियों में पहुंचते हैं। फूली हुई लसीकाग्रन्थि बद या बूबो कहलाती है। ये गिल्टियाँ अक्सर जाँघों में निकलती हैं। यदि पिस्सू ने हाथ में काटा हो तो गिल्टी बगल या गर्दन में निकलती हैं। पहले-पहल जो ग्रन्थियाँ प्रभावित होती हैं उनमें लाली तथा विकृति बहुत अधिक होती हैं इन्हें प्राथमिक बद (primary bubo) कहते हैं। विकृत लसीकाग्रन्थियों के साथ लसवहाओं द्वारा जिन लसग्रन्थियों का आगे सम्बन्ध होता है उनमें बाद में जो परिवर्तन और विकृतियाँ पाई जाती हैं वे पहले की अपेक्षा कम होने के कारण उन्हें द्वितीयक बद ( secondary bubo ) कहते हैं। जो प्लेग के जीवाणु रक्त के लसीकाग्रन्थियों में प्रवेश करते हैं और उन्हें फुला देते हैं वे तृतीयक बद ( tertiary bubo ) का निर्माण करते हैं । तृतीयक बद सम्पूर्ण शरीर में कहीं भी मिल सकती है। प्राथमिक बद का निर्माण कई ग्रन्थियों के प्रभावित होकर फूल जाने और आपस में मिल जाने से होता है। इस पर शोथ चौथे दिन तक मिलता है। अनि,यों के समीपस्थ अतियों में कोशाओं की भरमार, रक्तस्राव और व्रणशोथ की उत्पत्ति देखी जाती है। यदि इस बद को उत्पन्न होते ही काट कर देखा जाय तो उसमें से तनु लालास्राव निकलता है। उसमें पूयकोशा, रक्त के कण और प्लेग के असंख्य जीवाणु पाये जाते हैं। कुछ काल बाद जीवाणु विष उनमें कोशोत्पत्ति करके उन्हें मृदु बना देता है। ऐसी अवस्था में बद को काटने पर पूय तथा ग्रन्थि का कुथित (सड़ा) भाग आता है । इसमें प्लेग के जीवाणु अपेक्षाकृत कम संख्या में पाये जाते हैं। द्वितीयक बद में कोशा भरमार तथा कोथ नहीं मिला करता और समीपस्थ ऊतियों में व्रणशोथ मिलता है। ___तृतीयक बद जो सम्पूर्ण शरीर के किसी भी अंग में मिलते हैं सशूल और कठिन होते हैं। रोग की प्रतीकारिता पर प्लेग का रूप बहुत अधिक निर्भर रहा करता है। यदि रोगी की क्षमता शक्ति अल्प हुई तो जीवाणु सीधे रक्त में घुस कर दोषमयता ( septicaemia) उत्पन्न करते हैं। ऐसी अवस्था में बदोत्पत्ति प्रायशः नहीं देखी जाती । रक्त में गये जीवाणु आमाशय, त्वचा, आन्त्र, यकृत् , प्लीहा, हृदय, फुफ्फुस, वृक्क और लस्यकलाओं में प्रवेश करके रक्तस्रावयुक्त शोथ उत्पन्न करते हैं जिसके कारण यकृत्प्लीहोदर, श्वसनी फुफ्फुस पाक, रक्तवाहिनियों की अन्तःशल्यता या घनास्त्रोत्कर्ष इत्यादि उपद्रव उत्पन्न हो जाते हैं (घाणेकर ) रक्त में जीवाणुओं की संख्या बहुत द्रुत वेग से बढ़ती है। यहाँ तक कि १ घन सीसी में १०००० से १०००००० तक जीवाणु मिल जाते हैं। फुफ्फुस में जीवाणुओं के पहुंचने से बने श्वसनी फुफ्फुसपाक से पीडित For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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