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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ४५५ के आरम्भ में उपस्थित कर दिया है। केवल विकारी पदार्थों की उपस्थिति मात्र ही 1. उपसर्गकारक नहीं हुआ करती उसके लिए वास्तविक आक्रमण की आवश्यकता होती है। इसके लिए एक स्वस्थ तथा रोगोत्तरकालीन स्वस्थ का उदाहरण दिया जा सकता है। जब तक स्वस्थ व्यक्ति रहता है उसके शरीर में जीवाणु रहते हुए भी उपसर्ग से पीडित वह नहीं तथा रोग से तत्काल छूटा हुआ प्राणी स्वास्थ्यलाभ करता हुआ भी असंख्य रोगकारक जीवाणुओं का भण्डार होता है। पुरदिलनगर (अलीगढ़) क्षेत्र में मसूरिका रोग से लगभग २०० बालकों की जीवनलीला समाप्त हो गई। चेचक से बचे हुए एक . बालक के शरीर पर विराजमान असंख्य रोगकारी तत्व उसका कारण बने। एक बालक से दूसरा, दूसरे से तीसरा बीमार पड़ता और मरता गया। अतः रोगकारी तत्त्व की उपस्थिति . मात्र रोग नहीं, उस तत्त्व का सफलतापूर्वक शरीर को हानि पहुँचाने की दृष्टि से किया गया आक्रमण ही रोगोत्पत्ति का प्रधान साधन है। इसी एक कल्पना को आधार मान कर चलने वाला व्यक्ति आयुर्वेद के द्वारा उपसर्ग के स्थान पर क्षेत्र के महत्व को समझ सकता है। उपसर्ग तब तक लगना सम्भव नहीं जब तक कि अभिकर्ता विकारी नहीं है। कुछ जीवाणु शरीर के मित्र और कुछ शत्रु के रूप में होते हैं। इनमें शत्रुवत् व्यवहार करने वाले जीव ही रोग उत्पन्न करते हैं। साधारणतया ३ मार्गों से उपसर्ग शरीर में प्रवेश करता है। जिनमें एक त्वचा है, दूसरा पचनसंस्थान है और तीसरा श्वसनसंस्थान है। इनमें श्वसनसंस्थान महत्वपूर्ण मार्ग है । रोगी विकारीपदार्थ को साँस के साथ भीतर ले जाता है वह एक विन्दुक के रूप में श्वसनसंस्थान में प्रवेश करता है। यह विन्दुक किसी अन्य रोगी वा वाहक की नासा या गले द्वारा खाँसने अथवा छींकने के साथ बाहर आता है समीप में उससे वार्तालाप करने पुचकारने या एक के सूंघे पदार्थ को सूंघने से वह अन्य में लग जाया करता है। इन विन्दुकों के द्वारा उत्पन्न उपसर्ग सदैव अत्यधिक संक्रामक हुआ करता है। इन विन्दुकों में शेगकारी जो पदार्थ में निहित होता है उसे डाक्टर घाणेकर की भाषा में विषाणु (व्हाइरस) कहा जाता है। विषाणुओं द्वारा साधारण शैत्य प्रतिश्याय या इन्फ्लुएंजा, रोमान्तिका ( मीझिल्स) कनफेड ( पम्प्स ), त्वङ्मसूरिका (चिकिनपौक्स ), मसूरिका (स्मालपौक्स), जर्मनत्वङमसूरिका ( रुबेला), मस्तिष्कसुषुम्नाज्वर, पोलियोमाइलाइटिस और मस्तिष्कपाक (एकैफैलाइटिस) आदि रोग उत्पन्न होते हैं। जीवाणुओं द्वारा श्वग्रह (इपिंगकफ), लोहितज्वर (स्कारलेटफीवर) रोहिणी या डिफ्थीरिया तथा गुच्छगोलाणुजन्य ग्रसनीपाक ( Streptoco' coal sore throat ) है। ये सभी रोग अपने आरम्भिककाल में बहुत अधिक उग्र होते हैं क्योंकि इस अवस्था में ठीक-ठीक रोगनिर्णय करना कठिन होता है। मेरे पास एक ही घर के तीन प्राणी बीमार होकर आये तीनों को १०४° तक ज्वर था रह रहकर वमन थी, सिर में पर्याप्त वेदना थी और खाँसी थोड़ी-थोड़ी चलती थी। एक को उनमें से प्रतिश्याय ( इन्फ्लुएंजा) होकर रह गया। दूसरे को रोमान्तिका बनी और तीसरे को मसूरिका हुई। विषाणुओं के द्वारा उपसृष्ट इन तीनों बालकों का आरम्भिक निदान For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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