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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान कहलाता है। कामादि जनितज्वर आरम्भ में उतना बलवान् नहीं होता जितना कि वातादि दोषों के कुपित हो चुकने के बाद देखा जाता है। संक्षेप में अष्टविधज्वरों की सम्प्राप्ति . संस्रष्टाः सन्निपतिताः पृथग्वा कुपिता मलाः। रसाख्यं धातुमन्वेत्य पक्तिं स्थानान्निरस्य च ।। स्वेन ते नोष्मणा चैव कृत्वा देहोष्मणो बलम् । स्रोतांसि रुद्धा सम्प्राप्ताः केवलं देहमुल्बणाः ॥ सन्तापमधिकं देहे जनयन्ति नरस्तदा । भवत्यत्युष्णसर्वाङ्गो ज्वरितस्तेन चोच्यते ।। चाहे द्वन्द्व चाहे सन्निपात अथवा स्वतन्त्रतया प्रकुपित हुए दोष रसधातु का अनुसरण करके जठराग्नि को अपने स्थान से निकाल कर अपनी ऊष्मा से देहोष्मा की वृद्धि करते हैं। इसी समय उनके द्वारा स्रोतस और भी फैल जाते हैं जिससे और अधिक ज्वर हो जाता है। आयुर्वेदज्ञ उपरोक्त प्रकार के ज्वरों के अतिरिक्त आम पच्यमान और निरामज्वरों की भी कल्पना किया करते हैं :(१) अरुचिश्चाविपाकश्च गुरुत्वमुदरस्य च । हृदयस्याविशुद्धिश्च तन्द्रा चालस्यमेव च । ज्वरोऽविसर्गी बलवान् दोषाणामप्रवर्तनम् । लालाप्रसेको हृल्लासो क्षुन्नाशो विरसं मुखम् ।। स्तब्धसुप्तगुरुत्वञ्च गात्राणां बहुमूत्रता । न विड्जीर्णा न च ग्लानिज्वरस्यामस्य लक्षणम् । (२) ज्वरवेगोऽधिकस्तृष्णा प्रलापः श्वसनं भ्रमः । मलप्रवृत्तिरुक्लेशः पच्यमानस्य लक्षणम् ॥ (३) क्षुत्क्षामता लघुत्वं च गात्राणां ज्वरमार्दवम् । दोपप्रवृत्तिरष्टाहो निरानज्वरलक्षणम् । आम, पच्यमान और निराम ये ज्वर की ३ अवस्थाएँ हैं। आरम्भ में ज्वर के साथ अरुचि, अविपाक, गौरव, हृदयदेश की अविशुद्धि, तन्द्रा, आलस्य, ज्वर का निरन्तर वना रहना, दोषों का बाहर न निकलना, लाला गिरना, मचली आना, क्षुधानाश, मुखविरसता, गात्र की स्तब्धता, सुप्तता या गुरुता, मूत्र का अधिक बार त्याग और ग्लानि ये लक्षण मिलते हैं। किसी भी ज्वर में आरम्भ में यही लक्षण मिलते हैं ये लक्षण शारीरिकविकार की ओर लक्ष्य करते हुए भी रोगगाम्भीर्य की ओर दृष्टि नहीं ले जाते । ___ज्वर की दूसरी अवस्था जिसे पच्यमानावस्था कहते हैं गम्भीर होती है। इसमें ज्वर का वेग बढ़ता है, प्यास बढ़ती है, प्रलाप, श्वास, भ्रम, मलप्रवृत्ति और उत्क्लेश मिलते हैं। ___ तासरी अवस्था आशाजनक होती है जब ज्वर निराम हो जाता है तब रोगी को भूख लगती है, शरीर हलका हो जाता है, ज्वर मृदु पड़ जाता है, दोषों का प्रचलन होता है और आठवाँ दिन आ जाता है। दिन ७,९,१२ का दूना तीनगुना भी हो जाता है आठवाँ तो उपलक्षण है। ज्वर के सम्बन्ध में आधुनिक विचार उपसर्ग-ज्वर के सम्बन्ध में विचार करने के पूर्व उपसर्ग ( infection ) के सम्बन्ध में थोड़ा स्पष्ट ज्ञान हो जाने से सदैव लाभ रहता है । विकारी पदार्थों के द्वारा सजीव शरीर पर होने वाला आक्रमण उपसर्ग कहलाता है । हमने इस विषय को ग्रन्थ For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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