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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ४५३ शस्त्र, लोष्ठ, चाबुक, लकड़ी, अरनि, हाथ या पैर की तली, दाँत या अन्य किसी भी कारण से देह पर अभिधात या चोट लगने से अभिघातज्वर हो जाता है। अभिघातजज्वर में चोट लगने से पहले वायु प्रकुपित हो जाता है वह रक्त को दूषित कर देता है जिसके कारण चोट के स्थान पर व्यथायुक्त शोथ, विपर्णता और कफजज्वर उत्पन्न कर देता है। यह सम्माप्ति व्रणशोथात्मकज्वर ( iflammatory fever ) के लिए ही नहीं है । इसमें वातदोष और रक्तदूष्य में खराबी आती है। अभिषङ्गजज्वर में मनोविकार, कामक्रोधादि मनोवेगों के कारण ज्वर की उत्पत्ति होती है। काम या शोक या भय से वायुदोष, क्रोध से पित्त, भूताभिषङ्ग से तीनों दोष प्रकुपित होते हैं । विविध भूतों से उत्पन्न ज्वर में कई प्रकार के लक्षण होते हैं। अभिषङ्गजज्वर में वे ज्वर सम्मिलित हैं जो किसी संग या स्पर्श के कारण उत्पन्न होते हैं। विषाक्त वृक्षों को छूकर आनेवाली वायु के द्वारा या विषाक्त युद्धकालीन गैसों के स्पर्श से जो ज्वर होता है वह भी अभिषङ्गज ही माना जाता है। अभिचारजज्वर और अभिशापजज्वर इनमें एक अभिचार के कारण और दूसरा अभिशाप के कारण होता है। अभिचार में हिंसार्थ होम आता है। यह सोचकर कि अमुक का अनिष्ट किया जावे जो कुछ होम आदि किया जाता है वह अभिचार के अन्तर्गत आता है। अभिशाप में शाप देने के कारण उत्पन्न ज्वर का समावेश होता है । अभिचार और अभिशाप ये दो प्राचीनकाल में होते थे आजकल उनका अस्तित्व नहीं मिलता। योग की वे प्रक्रिया समाप्त प्रायः हैं जिनके करने मात्र से व्यक्तिविशेष को रोग हो जाता था। आधुनिक काल में जो रोग के जीवाणुओं जर्मवारफेयर द्वारा युद्ध चलता है वह एक अभिचारज प्रक्रिया है इसके द्वारा एक क्षेत्र में रोग बर्साया जाता है रोगाणुओं से दूषित अनाज फेंका जाता है। शाप देने के लिए तपस्या की आवश्यकता पड़ती है तपस्वी जब कुपित और क्रोधित हो जाते हैं तब वे शाप दे देते हैं । ऐसा भी आजकल नहीं होने पाता। अतः इन दो प्रकार के ज्वरों की परम्परा नष्टप्राय है। कामजज्वर में चिन्ता, श्वास बढ़ना, शोकज में अश्रुबहुलता, भयज में त्रास, क्रोधज में संरम्भाधिक्य, भूताविष्ट में अमानुषी क्रियाएँ, विषज में मूर्छा, मोह, मद ग्लानि आदि बढ़ते हैं। ये लक्षण कभी ज्वर के पूर्व और कभी ज्वर के बाद बनते हैं। ___आगन्तुजज्वर पहले स्वतन्त्र होते हैं फिर उनमें दोषों का मिश्रण हो जाता है। जिसे आधुनिक परिभाषा में दोषों का सञ्चयकाल कहते हैं उसका विचार ते पूर्व केवला: पश्चानिजैा मिश्रलक्षणाः' में किया गया है। आगन्तुजज्वर के विभिन्न कारणों में अभिघात, अभिषङ्गादि से पहले स्वतन्त्रतया स्वस्थ शरीर में उपसर्ग पहुँच जाता है। यह उपसर्ग धीरे-धीरे शरीर के दूष्य और दोषों को दूषित करके एक नियत काल में आगन्तु से निज में बदल जाता है तब जोर-शोर से रोगारम्भ होता है। अतः रोग का स्वरूप निज होनेपर भी बाह्य कारणों के द्वारा उत्पन्न होने के कारण वह आगन्तु For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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