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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान व्रणशोथ के कारणों पर आयुर्वेदीय शास्त्रों ने जो मत दिया है वह भी पर्याप्त महत्वपूर्ण है । उन्होंने शोथ को आगन्तुक और निज इन दो कारणों से होने वाला माना है । बाह्य कारणों से जो शोथ होता है उसे आगन्तुशोथ कहा है और जो आभ्यन्तरिक कारणों से शोध होता है उसे निजशोथ माना है । इन दोनों के पृथक पृथक हेतु दिये गये हैं । ( १ ) तत्रागन्तवश्छेदन भेदनक्षणनभअन पिच्छनोत्पेषणप्रहारवधबन्धन वेष्टनव्यधन पीडनादिभि व भल्लातकपुष्पफलरसात्मगुप्ता शूकक्रिमिशूकाहितपत्रलतागुल्म संस्पर्शनैर्वा स्वेदनपरिसर्पणावमूत्रणैर्वा विषिणां सविषाविषप्राणिदंष्ट्रादन्तविषाणनखनिपातैर्वा सागरविषवातहि मदहनसंस्पर्शनैर्वा शोधा: समुपजायन्ते । ( २ ) निजाः पुनः स्नेहस्वेदनवमन विरेचनास्थापनानुवासन शिरोविरेचनानामयथावत्प्रयोगान्मिथ्यासंसर्जनाद्वा छर्द्यलसकविमूचिकाश्वासकासातीसार शोषपाण्डुरोगोदर ज्वरप्रदर भगन्दराशविकारातिकणैर्वा कुष्ठकण्डूपिडकादिभिर्वा छर्दिक्षवथूद्गारशुक्रवातमूत्रपुरीषवेगविधारणैर्वा कर्म रोगोपवासातिकर्शितस्य वा सहसाऽतिगुर्वम्ललवणपिष्टान्नफलशाकराग दधिहरितक मद्यमन्दकविरूढनवशूकशमीधान्यानूपौदकपिशितोपयोगान्मृत्पङ्कलोष्ट्रभक्षणालवणातिभक्ष गाद्गर्भसम्पीडनादामगर्भप्रपतनात्प्रजातानां च मिथ्योपचारादुदीर्णदोषत्वाच्च शोफाः प्रादुर्भवन्तीति । ( च. सू. अ. १८-४,५ ) इसका अर्थ यह है कि निम्न कारणों से शोथ वा व्रणशोथ की उत्पत्ति प्राचीन मानते हैं । १. किसी भी वस्तु या पदार्थ द्वारा छेदन ( excision ), भेदन ( incision ), क्षणन ( comminution ), भञ्जन ( fracture ), पिच्छन ( laceration ), उत्पेषण ( pounding ), प्रहार ( blow ), वध ( concussion ), बन्धन ( binding ), वेष्टन ( ligaturing ), व्यधन ( piercing ), पीडन ( compression ) ये सभी साधारणतः आघात में आते हैं । २. प्रक्षोभक पदार्थों का संस्पर्श जैसे भल्लातक के फल या पुष्परस का संस्पर्श, कोंच के या किसी विषैले कृमि के शूक का संस्पर्श, या किसी विषाक्त लता के पत्र, गुल्म आदि का संस्पर्श | ३. विषधर जन्तुओं के स्वेद से या शरीर पर उनके रेंग जाने से, विषयुक्त वा विरहित प्राणियों के द्वारा काट लिए जाने से या सींग लग जाने से या नख लग जाने से भी व्रणशोथ हो सकता है । ४. समुद्र के किनारे की दूषित वायु का संस्पर्श भी व्रणशोथकारक हो सकता है । ५. हिमसंस्पर्श वा अग्निसंस्पर्श व्रणशोथ करता है । विद्युत्तारसंस्पर्श भी इसी में ले सकते हैं। ६. स्नेहन, स्वेदन, पंचकर्मादि के अयथावत् प्रयोग से शोथ होता है । इन कर्मों में जो पथ्य बताया जाता है ( संसर्जन ) उसके विपरीत आहार-विहारादि भी शोर होता है। ७. वमन, अलसक, विसूचिका, श्वास, कास, अतीसार, शोष, पाण्डुरोग, ज्वर, For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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