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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्रणशोथ या शोफ उदररोग, प्रदर, भगन्दर, अर्श, अतिकर्षण, कुष्ठ, कण्डू, पिडकादि रोगों के हो जाने पर शोथ भी प्रत्येक अवस्था में मिल सकता है। ८. वमन, छींक, डकार, शुक्रोत्सर्ग, वातोत्सर्ग, मलोत्सर्ग, मूत्रोत्सर्ग के वेगों के रोकने से भी शोथ होता है। ९. पञ्चकर्म किए हुए व्यक्ति को या रोग से उठे हुए व्यक्ति को या अतीव कृश व्यक्ति को अत्यधिक गुरु, अम्ल, लवण, पिष्टमय, अन्न, फल, शाक, अचार, चटनी, दही, अदरख, मद्य, अधजमी दही (मन्दक), बिना अंकुर निकले धान्य, नवीन शूकधान्य (प्राङ्गोदीय ), शमीधान्य (प्रोभूजिन ), आनूप, औदक मांस प्रयोग आदि से भी शोथ हो सकता है। १०. मिट्टी, कीचड़ या लवण का अत्यधिक भक्षण करना । ११. गर्भ का संपीडन ( pressure of gravid uterus )। १२. आमगर्भ का प्रपतन ( abortion )। १३. प्रसूता स्त्रियों के पथ्यादि सेवन न करने से शोथ हो सकता है। उपरोक्त १३ कारण को देखने से यह ज्ञात होता है कि प्रथम ५ कारण व्रण-शोथ के हेतु हैं, ६ से १० तक शोथ के हेतु हैं और शेष ३ दोनों के हेतु हैं। शोथ का वर्णन जब हम यथास्थान करेंगे तब उनके सम्बन्ध में विशद विवेचन उपस्थित किया जायेगा। इस समय तो हम व्रणशोथ का विचार कर रहे हैं । आगन्तुज शोथ का जितना वर्णन चरक ने किया है या शोथ नामक वर्णन सुश्रुत और वाग्भट ने उपस्थित किया है वह सब व्रणशोथ या इन्फ्लेमेशन ( inflammation ) के ही सम्बन्ध में कहा गया है । शोथ और व्रणशोथ दोनों को प्राचीन एक ही मानते हैं परन्तु विचारपूर्वक देखने से दोनों का पार्थक्य वे जानते थे। इसे समझने में कोई विशेष अड़चन न होगी। व्रणशोथ के हेतु लिखते हुए कश्यप ने निम्न सूत्र उपस्थित किया हैआगन्तुः क्षतनिष्पिष्टच्युतभन्नादिसंभवः । दष्टावमूत्रिताघ्रातसंस्पर्शगरयोगजः ॥ (क. सं. खि. अ. १७-८) यह स्मरण रखने योग्य है कि प्राचीनों ने शोथ वा व्रणशोथ के हेतु वर्णन में भौतिक और रासायनिक पदार्थों का समावेश तो बढ़ा चढ़ाकर किया है पर नवीनों द्वारा उपस्थित जीवाणुओं और मृत ऊतियों की शरीर में उपस्थिति के कारण भी व्रणशोथ हो सकता है इसे स्पष्ट नहीं किया। सामान्य लिङ्ग-महाशय ग्रीन ने व्रणशोथ के सामान्य लिङ्ग बतलाते हुए लिखा है: "The cardinal signs of inflammation are heat, redness, swelling, and pain; associated with these is impairment of function due partly to tissue damage and partly to pain. A Manual of Pathology अर्थात् व्रणशोथ के प्रमुख चिह्न ताप, लालिमा, शोथ और शूल होते हैं इनके For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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