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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्रणशोथ या शोफ ३ भी प्रयत्न होगा उसका उत्तर हमारा जीवमान शरीर अवश्य देकर प्रतिरोध करेगा । इस प्रतिरोध के दो स्वरूप हैं, एक रासायनिक जिसके द्वारा प्रतिद्रव्य उत्पन्न होते हैं और जिनका वर्णन प्रतीकारिता के पाठ में किया जायगा । उसका दूसरा रूप देह परमाणुओं (कोशाओं) द्वारा सक्रिय विरोध करना है । ये देह परमाणु ( cells) स्वयं तथा रक्त द्वारा शक्ति प्राप्त करके क्षतिकारक अभिकर्ताओं से लड़ते हैं । इस लड़ाई का आरम्भ, मध्य और अन्त व्रणशोथ की आम, पच्यमान और पक्वावस्थाएँ होती हैं। जिन जिन प्राणियों का निर्माण कोशाओं द्वारा होता है फिर चाहे उनमें रक्त हो या न हो सभी आघात को पाकर प्रक्षुब्ध हो उठते हैं और उनमें प्रतिक्रिया उत्पन्न हो जाती है । प्रतिक्रिया शोफ या व्रणशोथ कहलाती है । ~ हेतु - देह परमाणुओं का प्रक्षोभ किन कारणों से हो सकता है उसका विचार करने से आधुनिक विद्वान् निम्न ४ हेतु उपस्थित कर देते हैं: --- २. रासायनिक द्रव्य ४. मृतऊतियाँ १. आघात ३. जीवाणु तथा आघात के द्वारा व्रणशोथ की उत्पत्ति आकस्मिक होती है । एक बार किसी को चोट आई, ईंट का टुकड़ा गिरा, चाकू लगा, लाठी लगी, गर्म वस्तु छू गई, बिजली का तार छू गया या और कोई उसी प्रकार का उपद्रव हुआ कि शरीर के किसी एक भाग में क्षति हो गई । क्षति करने वाला कारण एक बार करके हट गया अब आगे शरीर कोशाओं में प्रतिक्रिया उत्पन्न होगी जिसके द्वारा क्षतिग्रस्त कोशा हटाये जायेंगे और नये कोशा ( cells ) उनका स्थान लेंगे | रासायनिक द्रव्यों के द्वारा व्रणशोथ की उत्पत्ति होने का कारण यह है कि तेजाब ( अम्ल) और दाहकतार आदि कुछ तीक्ष्ण रासायनिक पदार्थ शरीर कोशाओं को हानि पहुँचाते हैं उनके प्ररस ( cytoplasm ) के साथ मिल कर उसे निस्सादित कर देते हैं या उसकी क्रिया को नष्ट करके घाव बना देते हैं । इसके बाद शरीर की प्रतिक्रिया शोफ या व्रणशोथ के रूप में होती है । जीवाणु या रोगाणु - व्रणशोथ को उत्पन्न करने में जितना भाग लेते हैं वह सर्वविदित है । कोई भी जीवाणु जो शरीर के लिए अहितकारी है, किसी न किसी मार्ग से जब शरीर में प्रवेश पा जाता है तो वह वहाँ पर किसी न किसी ऊति (tissue) की क्षति प्रारम्भ करता है । उस क्षति को रोकने के लिए शरीरस्थ कोशाओं की जो प्रतिक्रिया होती है वह भी व्रणशोथ को जन्म देती है । जीवाणुओं के द्वारा उत्पन्न व्रणशोथों का वर्णन विविध रोगों का वर्णन करते समय यथास्थान किया जावेगा । मृत ऊतियाँ भी व्रणशोथोत्पत्ति में सहायक होती हैं। किसी भी कारण से जब सजीव ऊति का कोई भाग नष्ट होकर शरीर से पृथक् होकर भी अन्दर पड़ा रहता है तो वह समीपस्थ कोशाओं को प्रक्षुब्ध कर देता है जिसके कारण वहाँ व्रणशोध देखा जाता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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