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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८२ विकृतिविज्ञान द्वेष करने लगता है। हारीत ने क्षुधा का होना बतलाया है। अन्न से द्वेष होना एक स्थिति है और भूख का लगना दूसरी स्थिति । दोनों साथ-साथ रह सकती है और नहीं भी। हारीत की दृष्टि में भूख रहती है। पर वसवराज के मत से अग्निमान्छ पाया जाता है। अरुणदत्त ने अग्निमान्य होता है या नहीं इस पर बहुत विचारपूर्वक अपनी लेखनी सीधी की है, वह लिखता है: पित्तज्वरे च पित्तेन युक्तस्य कायाग्नेभूयो वृद्धयाभावम् नाग्निमान्छन, 'वृद्धिः समानैः सर्वेषां (अ. हृ. सू. अ. १-१४) इति वचनात् । एवं चाग्निमान्द्याभावात् ज्वरस्य सम्भवेऽप्युपपत्तिरयुक्ता। नैवम् । स्वस्थानाच्चालनेनाग्नेर्मान्द्यापत्तेः। स्थानवशाद्वाऽन्यथा त्वस्यापि क्रियासामर्थ्य दृष्टम् । तथा चाष्टाङ्गसंग्रहे चरके शोषनिदाने वक्ष्यति (च. नि. स्था. ६-५) योऽशः ( तस्य ) शरीरसन्धीनाविशति तेन ( अस्य ) जम्मा ज्वरश्चोपजायते' इत्यादि । तस्मात्स एवाग्निः क्वचिदेव देशे पक्तुं शक्तो भवति न सर्वत्र । उष्णगुणेन तु पित्तेन युक्तः पक्ता भवत्येवोष्णतरः अतएव सन्तापादीनधिकतरान् करोतीति न किञ्चिदत्रानुपपन्नम् । हारीत ने जहाँ क्षुधा की उपस्थिति पित्तज ज्वर में स्वीकार की है वहीं वसवराज ने स्पष्ट शब्दों में अग्निमान्ध का उल्लेख कर डाला है। अतः स एव अग्निः क्वचिदेव देशे पक्तुं शक्तो भवति न सर्वत्र नामक अरुणदत्तीय विचार धारा को ही स्वीकार कर लेना होगा। __वसवराज और अञ्जननिदानकार को छोड़ कर सभी लेखकों ने पित्तज्वर में अतीसार का उल्लेख स्पष्ट शब्दों में कर दिया है। चरक ने उसे कई लक्षणों के बाद स्मरण किया है पर सुश्रुत ने पित्तज्वर का दूसरा लक्षण ही अतीसार दिया है । वाग्भट ने उसे विटासः के नाम से पुकारा है। हारीत ने अतीसार और उग्रादित्य ने उसे विडभेद कहा है । वैद्य विनोद में सरणम् ही लिख कर छोड़ दिया है। ___गंगाधर ने लिखा है कि पित्त द्रव होता है अतः वह मल को भी तरल कर देता है इस सदृव विप्रवृत्ति को लोग अतीसार मानते हैं पर वास्तव में वह ढीला पाखाना मात्र है अतीसार नहीं। उसने इस विषय को बहुत समझदारी के साथ आगे बढ़ाया है अतीसार इति पित्तस्य सरत्वेन स एव विट्प्रवतिर्न त्वीसाररोगः। तस्य ज्वरोपद्रवत्वेनीक्तत्वात्। केचित् तु यदा सद्रवप्रवृत्तिस्तदा पित्तज्वर एव यदा तूपद्रवत्वेनातिसाररोगस्तदा ज्वरातीसार इतीच्छन्ति । वस्तुतस्तु द्रवपुरीषत्वमिति नोक्त्वातीसार इति वचनेन द्रवातिसरणं वातादिज्वरापेक्षया स्यात् तथा रसधातोरतिवृद्धत्त्वे पित्तदूषितत्वे च यस्मिन् पित्तज्वरे पित्तस्येव वह्रिदूषकत्वं पुरीपमिश्रता च स्यात् तस्मिन् पित्तज्वरे त्वतोसारो भवति, अतिसारज्वरयोस्तुल्यसम्प्राप्तिकत्वात् इत्युभयरूपत्वं ख्यापितमिति। केचिन्तु अस्यामेवावस्थायां ज्वरो ज्वरातीसार इत्याहुस्तद्यथा-पित्तज्वरे पित्तभवोऽतिसारः तथातिसारे यदि वा ज्वरः स्यात् । दोषस्य दूषस्य समानभावात् ज्वरातिसारः कथितो भिषद्भिः ॥ इति । अत्र तथातिसारे पित्तजातिसारे इत्यर्थः। अन्ये तु वाताद्यतिसारेऽपि वातोदरामाशयगमनम् अब्धातुविशेषरसधातुदूषणञ्चेति ज्वरस्य दोष दृष्यसामान्याद् यदि वाताद्यतिसारेऽपि ज्वरः स्यात् तदा सोऽपि ज्वरातिसार उच्यते, तेन ज्वरातिसारे भेषजविधानं पृथगिष्यते यतो ज्वरघ्नं प्रायशो भेदि अतिसारघ्नन्तु स्तम्भि। तच्च प्रत्येकं न युज्यते इत्याहुः। तच्च न चरकसुश्रुताचमिमतं युक्तथा ज्वरोक्तातिसारोक्तभेषजयोर्मिश्रेण भेषजकल्पनया सिद्धेः क्रियासामान्यञ्च युक्त्याभिसन्धाय प्रयोक्तुमर्हति । वह्रिवर्द्धनपाचनादिकं हि लब्धनादिकं ज्वरे चातिसारे च युक्तं For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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