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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ३८३ दृश्यते इति वरातिसारः पृथक नोक्त इति । उपद्रवाणाञ्च स्वस्वचिकित्सा विहिता, अन्यथा तत्तदुपद्रववतां प्रत्येकं चिकित्साविशेषस्य वाच्यत्वापत्तिः स्यात् । न चातिसारज्वरयोविरुद्धोपक्रमोऽस्ति तावानेव लधनादिसमोपक्रमदर्शनात् । स्वेदः अर्थात् पसीने का निकलना पित्तज्वर की ही विशेषता है क्योंकि स्वेदावरोधः सन्तापः सर्वाङ्गग्रहणं तथा, युगपद्यत्र रोगे च स ज्वरो व्यपिदिश्यते । का पाठ करने वाले ही कण्ठोष्ठ मुखनासानां पाकः स्वेदश्च जायते का अट्टहास जब करने लगते हैं तो इस विरोधाभास से बड़े-बड़े अनर्थ होने की आशंका उत्पन्न हो जाती है। सुश्रुतसंहिता के अन्दर ही ये दोनों विरुद्ध उक्तियों का प्रदर्शन हुआ है । पर सुश्रुत के सर्वोत्तम टीकाकार डल्हणाचार्य ने स्वेदावरोधः स्वेदानिर्गमः, एतच्च प्रायिकं लक्षणं पैत्तिके स्वेदनिर्गमात् द्वारा स्पष्ट कर दिया है कि स्वेद का निकलना ज्वर में बहुधा होता है अनिवार्यतः नहीं क्योंकि पित्तज्वर इसका अपवाद मौजूद है। गङ्गाधर ने इसी को कुछ और स्पष्ट कर दिया है स्वेदो धर्मप्रवृत्तिः सर्वज्वरे प्रायशो धर्मनिरोधेऽपि पैत्तिकादिज्वरे पित्तस्य तेक्ष्ण्यात् ज्वरप्रभावाद्वा धर्मनिरोधो न स्यात् ।। पित्त की तीक्ष्णता अथवा ज्वर के विशेष प्रभाव के कारण स्वेदागमन हुआ करता है। अतः पित्तज्वर के ज्ञापक लक्षणों का भले प्रकार विचार करने वाले को स्वेदागमन बहुत सरलता से उसके पैत्तिक होने का प्रमाण उपस्थित कर सकता है । मधुकोशव्याख्याकार ने भी गंगाधर के ही मत का समर्थन किया है प्रायेण सामदोषेण स्रोतसा निरोधात् सर्वज्वरेषु धर्मनिरोधः, अत्र तु पित्तस्य तैक्ष्ण्याज्ज्वरप्रभावाद्वा स न भवति । वसवराज और अंजननिदानकार को छोड़कर शेष सभी विद्वानों ने स्वेदागम स्वीकार किया है। उग्रादित्याचार्य ने तो प्रचुरता के साथ प्रस्वेदन स्वीकार किया है। जब अत्यधिक गर्मी पड़ती है तब डट कर पसीना आया करता है। इसी प्रकार जब यहाँ रोगी पित्त की भयंकर ज्वाला से जल रहा हो और पित्त की ऊष्मा शरीर के कण-कण को प्रदग्ध कर रही हो तो स्वेदोत्पत्ति होना असम्भव नहीं है। ज्वर के वेग की प्रबलता, दाह और तीक्ष्णता के कारण घबराया हुआ रोगी बकबक करने लगता है । तापाधिक्य जब भी १०४ से ऊपर जाने लगता है रोगी की ज्ञानशक्ति क्षीण हो जाती है और मस्तिष्कस्थ वाक्केन्द्र स्वतन्त्र हो जाता है। इसी को प्रलाप नाम से पुकारा गया है। प्रलाप, प्रलपन और विवादिता आदि शब्दों द्वारा प्राचीनों ने इस लक्षण को व्यक्त किया है। प्रलाप स्वयं एक वातिक लक्षण है जिसका उल्लेख अस्सी प्रकार के वातरोगों में आचुका है। पर गंगाधर के शब्दों में 'प्रलापोऽसम्बन्धवचनं वातकार्यवत् पित्तकार्यश्च' प्रलापसम्बद्ध बकबक है जो वातकार्य है और पित्तकार्य भी हो सकता है। प्रलाप का वर्णन निम्न रोगों में आवेगा१. वातज्वर २. भयज ज्वर ३. पच्यमानज्वर ४. पित्तज्वर ५. शोकज ज्वर ६. रक्तज ज्वर For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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