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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ३८१ कुछेक कण गले या मुख तक आ सकते हैं और मुख में कटुता या तिक्तता उत्पन्न कर सकते हैं। जब एक बार पैत्तिक वमन हो जाता है तो उसकी कडुवाहट पर्याप्त काल तक मुख में बनी रह सकती है। कटुवक्त्रता अर्थात् कटुरसत्वमास्ये या मुख में कटुरस की उपस्थिति इतना लिया जाता है कुछ लोग जो तिक्तास्यता स्वीकार करते हैं उनके मत से मुख में तिक्तता लिया जासकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि पित्तज्वर में मुख चरपरा तीक्ष्ण अथवा कडवा रह सकता है। गंगाधर ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डाला है। विशेषेण कटुकास्यता तिक्तास्यता महारोगाध्याये हि पित्तनानात्मजेषु तिक्तास्यत्वमुक्तम् अन्ये तु कटुः स्यात् कटुतिक्तयोरिति स्मृत्या तथा योऽम्लं भृशोष्णं कटुतिक्तवक्त्रः पीतं सरक्तं हरितं वमैद्वा । सदाहचोषज्वरवक्रशोषं सा पित्तकोपप्रभवा हि छर्दिः । इति सुश्रुतवचनाच्च कटतिक्तान्यतरास्यत्वमिच्छन्ति, दृश्यते हि तिक्तास्यत्वमेव ज्वरे इति । मुख में कटुता ( चरपरापन ) रहती है या तिक्तता ( कडवाहट) इसके सम्बन्ध में चरक, सुश्रुत, वृद्धवाग्भट, वाग्भट, उग्रादित्याचार्य एक मत हैं पर वैद्यविनोद मुख में तिक्तता का ही उल्लेख करता है। पैत्तिक व्याधियों में सदैव कटुरस की ही वृद्धि होती है । कटुरस स्वयं भी पित्त का उद्बोधक है इसी कारण आचार्यों ने कटुवक्त्रता को ही प्रधानता दी है। सुश्रुत ने कटुरस और पित्त के सम्बन्ध क्या ही सुन्दर उद्धरण उपस्थित किया है औष्ण्यतैक्ष्ण्यरौक्ष्यलाघववैशद्यगुणलक्षणं पित्तं, तस्य समानयोनिः कटुको रसः सोऽस्यौष्ण्यादौष्ण्यं वर्धयति, तैक्ष्ण्यात्तैक्ष्ण्यं, रौक्ष्याद्रौक्ष्य, लाघवाल्लाघवं वैशद्याद्वैशद्यमिति । (सु. सू. अ. ४२) कषायतिक्तमधुराः पित्तं प्रन्ति इस परमेश्वर लिखित वाक्य से तो तिक्तरस पित्तनाशक रस है अतः उसकी उत्पत्ति पित्त के प्रकोप काल में नहीं हो सकती अतः तिक्तमुखता के स्थान पर कटुवक्त्रता ही अधिक उचित ज्ञात होता है पर मुख का स्वाद पित्त के कड़वाहट के कारण कडवा भी कहा जा सकता है पर वह वास्तव में कटु ही है। तापश्च चक्रे शब्द का व्यवहार हारीत ने किया है। जब व्यक्ति कटु पदार्थ जैसे सोंठ मिर्च या पीपल खा लेता है और फिर ऊपर से गर्म दूध या जल पीता है तो थोड़ी सी गर्मी से ही मुख अधिक तप्त हो जाता है और कटु रस समेत उष्णता के कारण वक्त्र में ताप या अधिक गर्मी मालूम पड़ती है। अतः शरीर ज्वर से दग्ध है और कटुकास्यता मौजूद है अतः वक्त्र में ताप है ऐसा ले सकते हैं। हारीत ने पाक तापश्चचके शब्द व्यवहार किया है जिससे यह सिद्ध है कि हारीत मुख के पाक और मुख के ताप दोनों को ही मानता है। ___ अन्नद्वेषः ऐसा एक लक्षण तित्तज्वर का चरक ने दिया है। अन्न में अरुचि होना इसका भाव है। अरुचि नामक एक लक्षण वसवराज ने भी दिया है। इसका भी भाव अन्न से द्वेष होना किया जाना चाहिए । अन्न से द्वेष का कारण मुख की कटुता वा तिक्तता है। जो कुछ भी खाया जाता है वह कडुआ लगता है इसलिए व्यक्ति अन्न से For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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