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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ३४६ इस ज्वर में स्वेदोत्पादक ग्रन्थियों में भी कुछ क्रिया बढ़ जाती है अतः स्वेदागम होता रहता है। अधिक ऊष्मा और अन्तर्दाह के कारण तृष्णा का होना अस्वाभाविक नहीं है | श्वासोच्छ्वासकारिणी पेशियों के प्रभावित होने से श्वास का वेग भी बढ़ सकता है। रोगी की पेशियों में थकान ( fatigue ) पर्याप्त मात्रा में रहने से तन्द्रा का आना या पुलकन होना या अङ्गों में व्यथा का अनुभव होना साधारण सी घटनाएँ हैं । तीव्रज्वर, श्वास और प्रस्वेदाधिक्य का परिणाम मूर्च्छा तक जा सकता है । वसवराजीयकार ने मांसगतज्वर का जो रूप हमारे सामने रखा है वह बहुत भयानक और उग्रावस्था का चित्रण करता है । इसमें सृष्टमूत्रपुरीषता का लक्षण उसने नहीं लिखा । सम्भवतः दस्तादि होने के पूर्व उग्रता की अधिकता के कारण देखे गये मांसगत ज्वर का यह स्वरूप रहता हो इसको प्रत्यक्ष देखकर ही यहाँ प्रगट किया गया है । चरक और वृद्धवाग्भट दोनों ने मांसगत ज्वर में गात्र की दुर्गन्धता पर भी बल दिया है । स्वेदाधिक्य अथवा सृष्टमूत्रपुरीषता के कारण रोगी से दुर्गन्ध आना एक साधारण बात है । पर यह गात्रविक्षेप के कारण पेशियों में कुछ न कुछ क्रिया होने के कारण उत्पन्न दुर्गन्धता हम मानते हैं । जैसा कि अधिक व्यायामशील पहलवान के शरीर से जब कभी गात्र दौर्गन्ध्य देखा जाता है । गात्र की दुर्गन्धता का एक कारण यह भी है कि मांसगतज्वर से पीडित रोगी सदैव जीर्ण या अधिक काल से बीमार ही हुआ करता है । अतः उसमें दुर्गन्धता मिलना सदैव सम्भव है । अष्टांगसंग्रहकार ने भ्रम और तम ये दो लक्षण और भी बतलाये हैं । उसका कारण यह है कि मांसगत ज्वर बहुधा रक्तगत ज्वर के आगे की अवस्था है | अतः रक्त धातु के हास के साथ भ्रम या चक्करों का आना और तम अर्थात् दृष्टि के समक्ष अन्धकार हो जाना या दृष्टिमान्य हो जाना अस्वाभाविक नहीं है । ये दोनों भी लक्षण अन्य अनेक शारीरिक लक्षणों की तरह अस्थायी हैं और रोगनिर्मूलन के साथ-साथ इनका भी निर्मूलन सरलतया हो जाता है । सोऽन्येद्युः पिशिताश्रितः के अनुसार अन्येद्युष्क ज्वर नाम का विषमज्वर भी मांस में आश्रय करके रहता है । परन्तु अन्येद्युष्क ज्वर में और मांसगत ज्वर में बहुत अन्तर है | एक स्वयं मांस नामक धातु को लक्ष्य बनाकर चलता है और दूसरा केवल उसमें आश्रयी आश्रित के भाव से रहता है । अन्येद्युष्क को भेल रसव्यापत्तिज मानकर रसाश्रित बतलाता है | मांसगत ज्वर निरन्तर रहने वाला एक जीर्ण ज्वर है तथा अन्येद्युष्क ज्वर दिन रात में केवल एक ही बार आता है शेष समय रोगी पूर्ण सुखी रहता है । साधारण अन्येद्युष्क ज्वर में ऊष्मा, अन्तर्दाह, मूर्च्छा, श्वास, अतीसार भ्रम आदि के वे लक्षण भी नहीं मिलते जिनको मांसगत ज्वर के साथ प्राचीनों ने बाँध दिया है । अतः इन दोनों की पृथक्-पृथक् सत्ता के सम्बन्ध में संशय करने का कोई कारण नहीं है । दोनों की चिकित्सा में भी पर्याप्त भेद रहा करता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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