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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४८ विकृतिविज्ञान लाल और उष्ण होती है। उसने प्रलाप, दाह, राग, मतिभ्रम, तृष्णा और रक्तष्ठीवन को स्वीकार किया है । आधुनिक टायफाइड से इसकी तुलना कीजिए। ____ जहाँ रसधातु में ज्वर के पहुंचने से शरीर में गौरव, उत्क्लेश और वमन की प्रवृत्ति बढ़ती है यानी श्लेष्मा का प्रभाव बढ़ता है उसी प्रकार जब रक्तधातु में ज्वर बढ़ता है तो तापाधिक्य, दाह और उष्णता की अभिवृद्धि स्पष्टतः यह उद्घोषित कर देती है कि अब शरीर में पित्ताधिक्य हो रहा है । सुश्रुत ने पित्त को रक्तधातु का मल माना हैकफः पित्तं मलःखेषु स्वेदः स्यान्नखरोम च । नेविट त्वक्षु च स्नेहो धातूनां ब्रामशो मलः ॥ रक्तधातु शरीर में ३ कार्य करती है। पहला वर्ण का प्रसादन, दूसरा मांस की पुष्टि तथा तीसरा प्राणधारण। जब रक्त स्वयं ज्वर के कोप का कारण बनता है तो रोगी के शरीर का वर्ण और अधिक लाल हो जाता है। मांस क्षीण होने लगता है अथवा शिथिल हो जाता है जिसके कारण आलस्य की वृद्धि होती है और तीसरे मानवीय प्राणशक्ति कम हो जाती है जिसका परिणाम प्रलाप, मतिभ्रम अथवा मूर्छा में होता है। ___ रक्त जब ज्वर की उत्पत्ति में प्रमुख भाग लेता है तो रक्त के स्वाभाविक गुणों में कुछ हीनता आ जाती है। उसी के फलस्वरूप रक्त का स्कन्दन का धर्म कम हो जाता है और थूक में रक्तागम हो जाता है। रक्तगत तरल पदार्थ अधिक उत्ताप के कारण बाहर जाने के कारण तृष्णा बढ़ती है । मस्तिष्क में स्थित मेधाकृत साधक पित्त रक्तगत ज्वर के कारण विकृत होकर मतिभ्रम तथा प्रलाप उत्पन्न कर देता है। त्वचा में स्थित ऊष्मकृत् भ्राजक पित्त विकृत होकर अधिक ऊष्मा ही नहीं पिटिकाओं को भी सुभीते से उत्पन्न करने में सहायता करता है। मांसगतज्वर (१) पिण्डिकोद्वेष्टनं तृष्णा सृष्टमूत्रपुरीषता। ऊष्मान्तर्दाहविक्षेपौ ग्लानिः स्यान्मांसगे ज्वरे ॥ (सुश्रुत) (२) अन्तर्दाहोऽधिकस्तृष्णा ग्लानिः संसृष्टविटकता।दौर्गन्ध्यं गात्रविक्षेपो ज्वरे मांसस्थिते भवेत् ॥(चरक) (३) अतितीव्रज्वरः श्वासः स्वेदस्तृष्णाङ्गकव्यथा। तन्द्राविदाहपुलकमूर्छा मांसगतज्वरे ।। (वसवराजीय) (४) तृडग्लानिः सृष्टवर्चस्त्वमन्तहो भ्रमस्तमः। दौर्गन्ध्यं गात्रविक्षेपो मांसस्थे ।। ( अष्टाङ्गसंग्रह ) मांसगत ज्वर एक स्पष्ट लक्षणयुक्त ज्वरावस्था है। इसमें ऐच्छिक और अनैच्छिक दोनों ही पेशियों में विशेष कष्ट रहता है। मांसगत ज्वर में मांसधातु धीरे धीरे क्षीण होने लगती है । ऐच्छिक पेशी द्वारा निर्मित पिण्डलियों में ऐंठन पड़ती है और अनैच्छिक पेशियों से निर्मित आँतों में क्रिया शक्ति के अल्प हो जाने के कारण दस्त आते रहते हैं। इसी प्रकार मूत्र संस्थान की पेशियों के शैथिल्य से बार-बार मूत्रत्याग रोगी करने लगता है। पेशियों द्वारा ही शरीर में ऊष्मा बढ़ती है जिसे व्यायाम के समय देखा जा सकता है। इधर ज्वराक्रान्त पेशियों में विक्षेप नामक क्रिया की अधिकता होने से और अन्तर्दाह रहने से ऊष्माधिक्य रहा करता है। इसी को वसवराजीयकार ने अति तीव्रज्वर कहा है रोगी को थोड़ी ग्लानि भी मिलती है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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