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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra . ३५० *.. विकृतिविज्ञान मेदोगतज्वर भृशं स्वेदस्तृषा सूर्च्छा प्रलापश्छर्दिरेव च । दौर्गन्ध्यारोचकौ ग्लानिर्मेदःस्थे चासहिष्णुता || (सुश्रुत) स्वेदस्तीत्रः पिपासा च प्रलापारत्यभीक्ष्णशः । सगन्धास्यासहत्वञ्च भेदःस्थे ग्लान्यरोचकौ ॥ (चरक) " मैदसि स्थिते । ... स्वेदोऽतितृष्णा वमनं स्वगन्धस्यासहिष्णुता । प्रलापो ग्लानिररुचिः ॥ ( वृद्धवाग्भट ) www.kobatirth.org { मेदोगतज्वर मांसगतज्वर के आगे की अवस्था है । मांसगत ज्वर में स्वेद, तृष्णा मूर्च्छा और गात्र दौर्गन्ध्य का जो राग अलापा गया था वह यहाँ विशेष महत्त्व के साथ प्रकट हुआ है। चरक का स्वेदस्तीत्रः शब्द और सुश्रुत का भृशं स्वेदः अधिक प्रस्वेदता ओर इति करता है । वृद्धवाग्भट अतितृष्णा प्यास की महत्ता को स्पष्ट करता है । गात्रदुर्गन्ध इतनी अधिक हो जाती है कि स्वयं रोगी को उसके प्रति असहिष्णुता पाई जाती है । बेचैनी की मात्रा भी बढ़ जाती है । रोग की उग्रता में वृद्धि का परिणाम वमन, प्रलाप और मूर्च्छा नामक लक्षणों से प्रकट होता है । अरुचि का अर्थ यहाँ केवल भोजन से ग्लानिमात्र नहीं है उसके लिए चरक ने ग्लानि शब्द का पृथक उल्लेख किया है । यहाँ अरुचि एक गम्भीर चेतावनी है जिसमें रोगी को जीवन से अरुचि हो जाती है । यह एक कष्टसाध्य व्याधि है । इसका विचार करते हुए ही इसकी कल्पना करनी चाहिए । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ... अस्थिगतज्वर (१) भेदोsस्थनां कूजनं श्वासो विरेकरछर्दिरेव च । विक्षेपणं च गात्राणामेतदस्थिगते ज्वरे || ( सुश्रुत ) (२) विरेकवमने चोभे सास्थिभेदं प्रकूजनम् । विक्षेपणम् च गात्राणां श्वासश्चास्थिगते ज्वरे ॥ ( चरक ) (३) · अस्थिस्थे त्वस्थिभेदनम् । दोषप्रवृत्तिरूर्ध्वाधरश्वासाङ्गक्षेपकूजनम् ॥ ... ( वृद्धवाग्भट ) अस्थिभेदन, कूजन, वमन, विरेचन, श्वास, अङ्गविक्षेपण इन ६ लक्षणों से पीडित रोगी को अस्थिगत ज्वरान्वित माना गया है । अस्थियों में शूल पर्यस्थपाक या अस्थि पाकावस्था में मिला करता है। हड़फूटन नामक जो अंगमर्द होता है उससे अधिक गम्भीर स्थिति इसमें पाई जाती है । क्योंकि वह पेशियों की व्यथा है और केवल दबाने मात्र से या सेकने से शान्त हो जाती है । पर अस्थिभेदन और अस्थिकूजन उतना साधारण विकार नहीं है । यह दिन रात रहने वाला लक्षण है । रात्रि में जब रोगी चाहता है कि वह सुखपूर्वक सो जावे उस समय हड्डियाँ चटखती और दर्द करती हैं । श्वासोच्छ्वासगति इस रोग में बहुत बढ़ जाती है । श्वासोच्छ्वास गति बढ़ते ही दूसरा प्रश्न जो एक जीर्णज्वरी में किया जाना चाहिए वह अस्थिभेद का ही वेध करके उचित निदान कर सकता है । वमन और विरेचन रोग की उग्रता को सूचित करते हैं । उदर में कोई वस्तु टिकने नहीं पाती । रोगी ऊर्ध्व या अधोमार्ग से उसे निकाल देता है । इसके कारण शरीर में जहाँ जलाभाव हो जाता है वहाँ अत्यधिक शिथिलता और दौर्बल्य भी उसे दारुण्य की For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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