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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर रक्तधात्वाश्रयः प्रायो दोषः सततकं ज्वरम् । द्वारा कहा है कि सततज्वर रक्त धातु के आश्रित यानी रक्तगतज्वर ही मानना चाहिए और अहोरात्रे सततको द्वौ कालावनुवर्तते के अनुसार यह ज्वर दिन रात्रि में दो बार चढ़ने वाला होता है । पर सततज्वर के इस लक्षण का वर्णन कि यह दो बार चढ़ता है। रक्तगत ज्वर के लक्षणों के वर्णन में कहीं भी नहीं दिया गया। इसका अभिप्राय यही है। कि सततज्वर रक्तधातु को आश्रय बनाकर विषम संज्ञक एक ज्वर विशेष का रूप हो सकता है और वह दो बार दिन रात्रि में चढ़ता है । परन्तु रक्तगत या रक्तधातुगत जो ज्वर आचार्यों ने सप्तविध ज्वर के साथ स्पष्टतया उपस्थित किया है वह सततज्वर न होकर एक गम्भीर स्वरूप की पूर्णतः पृथक् सत्तासम्पन्न व्याधि विशेष है । ३४७ वRवराजी में मतान्तरों के उल्लेख में जिस रक्तगत ज्वर का विचार किया गया है। उसमें ज्वर, उष्णता और दाह ये तीनों पृथक्-पृथक् कहे गये हैं इससे यह आभास मिलता है कि इस ज्वर में पर्याप्त तापांश के साथ खूब अन्तर्दाह रहा करता है । रक्त और पित्त अथवा अनि का आपस में जितना घनिष्ट सम्बन्ध है उसे आयुर्वेद का प्रत्येक विद्यार्थी समझता है । अस्तु, रक्तगत ज्वर में रोगी को गर्मी का अधिक अनुभव करना कोई नितान्त अनावश्यक घटना न होकर सहज और स्वाभाविक उपलक्षण है जो तापांश की उत्तरोत्तर वृद्धि की ओर भी ध्यान खींचता है। इसके कारण मतिभ्रम होना भी स्वाभाविक है। रोगी अलमारी में रखे कपड़े के ढेर को बालक समझ सकता है । जहाँ आग न हो वहाँ आग और जहाँ जल न हो वहाँ जल वह बतला सकता है | यह मतिभ्रम के सरलतया प्राप्त उदाहरणों में से कुछ हैं। रोगी को देखने से ऐसा लगता है कि मानो उसने नशा कर लिया हो । उसकी आँखें चढ़ी हुई रहती हैं। पूछने पर वह शरीर में बेचैनी बतलाता है और बहुधा मूच्छितावस्था में पड़ा रहता है । अत्यधिक ज्वर मति में भ्रम और मूर्च्छा ये लक्षण सदैव अत्यधिक गम्भीर अवस्था को प्रगट करने के उपाय हैं । सुश्रुत ने जिसका उल्लेख माधवकर ने किया है रक्तगत ज्वर को और भी अधिक गम्भीर माना है । अर्थात् उसकी कल्पना के अनुसार इतना ज्वर कि रोगी को प्रलाप हो जावे, पिडकाएँ निकल आयें, प्यास बढ़ जावे और जिसमें मूर्च्छा एवं मतिभ्रम भी हो । रोगी का खून थूकना या रक्तष्ठीवन ( haemoptysis ) तथा वमी ये दो लक्षण 1 विशेष दिये हैं । For Private and Personal Use Only उपरोक्त लक्षणों के साथ जब हम चरकोक्त लक्षणों का सामञ्जस्य बैठा लेते हैं तो हमें बार-बार रक्त का थूकना, तृष्णा की उपस्थिति और प्रलाप के गम्भीर लक्षणों के साथ ही साथ दाह, शरीर का लाल पड़ जाना, मतिभ्रम, मद और पिडकोद्गम भी मिलते हैं | तीव्रज्वर के साथ रक्तष्ठीवन का मिलना और शरीर पर पिडकाओं का बनना निस्सन्देह एक स्पष्ट रक्तगत ज्वर की ओर इङ्गित करता है । वृद्ध वाग्भट ने पिटिकाओं के स्वरूप का भी वर्णन दिया है कि रक्तधातुगत ज्वर में
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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