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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रक्तपरिवहन की विकृतियाँ २७६ fibres ) या सुषुम्ना के धूसरवर्णिक शृङ्गों ( grey rami ) को काट देने से भी अतिरक्तता उत्पन्न की जा सकती है। परिणाम-अतिरक्तता के वे सभी परिणाम होते हैं जो किसी अङ्ग विशेष में धामनिकरक्त की अधिकता और उसकी गति के बढ़ने से हो सकते हैं। अर्थात् वहाँ लालिमा और स्पन्दन ( pulsation ) बढ़ जाता है, आकार-वृद्धि हो जाती है, प्रस्पन्दन ( throbbing ) होता है। वहाँ की कार्यशक्ति भी बढ़ जाती है और यदि यह कार्य-परता कुछ दिन स्थिर रही तो उस अङ्ग की अतिपुष्टि ( hypertrophy ) भी हो जाती है। ____ अतिरक्तता के कारण वातिककेन्द्रों (nerve centres) में उत्तेजना प्रगट होती है। दृष्टि एवं श्रवण की परहृषता (parasthesia ) तथा आक्षेप ( convulsions) भी बढ़ते हैं। प्रन्थियों में अतिरक्तता के कारण स्रावाधिक्य होता है।। निश्चेष्टातिरक्तता-इसे निष्क्रिय अधिरक्तता (passive congestion) भी कहते हैं। इसमें अतिरक्तता सिराओं और केशिकाओं में विशेष होती है। क्योंकि भङ्ग के उस भाग से सिरागतरक्त के बाहर जाने में बाधा पड़ती है। यह अवस्था तीव्र एवं अस्थायी ( acute & temporary) या कालिक एवं स्थायी ( chronic & permanent ) देखी जाती है। यह सार्वदेहिक या स्थानिक दोनों प्रकार की मिल सकती है। सिरागत रक्त के बाहर जाने में बाधा पड़ने के दो प्रमुख हेतु देखे जाते हैं :१. सिराएँ अभिस्तार की सीमा का अतिक्रमण कर दें और उनकी अन्तश्छद विष युक्त सिरागतरक्त के कारण विषाक्त होकर उसे पूर्ण प्रवेश्य बना दे। २. अङ्ग विशेष के कोशा अपने ही चयापचय (metabolism) से उत्पन्न विषैले भाग का परित्याग करने में असमर्थ हो जावें । सामान्य निश्चेष्ट अधिरक्तता (General Passive Congestion ) इसका जितना अवरोध हृदय में होता है उतना फुफ्फुसों में नहीं देखा जाता। वार्धक्य ( old age ) अथवा आन्त्रिकज्वरजन्य विष के कारण उत्पन्न दुर्बलता इन दो कारणों से हृत्पेशी में पर्याप्त सीमा तक सङ्कोच करने की अशक्यता हो जाती है। इसके कारण वामनिलय से रक्त पूर्णतः बाहर नहीं जा पाता इससे हृत्पेशी में अधिक रक्त भर जाता है और वह ऊति पूर्ण ( over-filled ) अभिस्तीर्ण ( dilated ) हो जाती है। इसके कारण रक्त भी अपनी स्वाभाविक गति के अनुसार फुफ्फुस और महासिराओं में से होकर नहीं जाता । परिणाम यह होता है कि धातुओं का जारण कम होता है। जो हृत्पेशी को और भी निर्बल कर देता है। यह दुष्चक्र ( viscious circle ) बराबर चलता रहता है। कभी कभी द्विपत्रक या महाधमनी के कपाटों में सन्निरोधोत्कर्ष ( stenosis) होने से जैसा कि आमवात में देखा जाता है द्वार-कपाटिकाएँ ( valve-cusps ) एक दूसरे से सट जाती हैं जिससे रक्त के जाने में असुविधा होने से उसके पीछे का For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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