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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७८ विकृतिविज्ञान हृदय के ऋणास्त्र किरीटिका धमनी या हृद्रोहिणी ( coronary artery ) के घनास्रोत्कर्ष ( thrombosis ) के कारण प्रायः करके तथा उसकी अन्तःशल्यता से थोड़े से हृदय के घनास्त्र बनते हैं। इसका विक्षत ( lesion ) वामनिलय के शिखर ( apex ) पर प्रायः मिलता है। हृदय के ऋणास्र का परिणाम अधिकतर मृत्यु में होता है जीवित रहने पर पेशी का उतना भाग तान्तवऊति ( fibrous tissue ) में परिणत होकर हार्दिक विस्फार ( cardiac aneurysm ) का रूप रख लेता है जो आगे चल कर स्फुटित ( rupture ) होकर मृत्यु का कारण बनता है। मस्तिष्क के ऋणास्र यह मृदुता एवं द्रवणीय परिवर्तन ( collequative change ) के फलस्वरूप देखे जाते हैं। यदि ऋणास्त्र बड़ा हुआ तो वह कोष्ट ( cyst) का निर्माण करता है। यदि उसमें पूया आ गई तो अनेक मस्तिष्कीय विद्रधियाँ बन जाती हैं। अतिरक्तता या परमरक्तता ( Hyperaemia ) सचेष्ट और निश्चेष्ट ( active & passive ) दो प्रकार की अतिरक्तता या परमरक्तता देखी जाती है। सचेष्टातिरक्तता-यह वह अवस्था है जब किसी अङ्ग विशेष में धमनी रक्त की अधिकता हो जाती है। इसका प्रमुख कारण है धमनिकाओं से उद्भूत केशालों की रोधक शक्ति ( power of resistence ) का हास किसी भी अङ्ग में अनेक केशालें होती हैं। वे सभी एक साथ नहीं खुलती क्योंकि इनका खुलना और बन्द होना कई बातों पर निर्भर करता है। किसी अङ्ग की केशालें खुली रहती हुई भी उसको पहुँचने वाली धमनिका सङ्कुचित रह सकती है। केशालों के द्वारा किसी भाग की लाली का तथा धमनिकाओं द्वारा उस भाग के तापक्रम का नियन्त्रण होता है। अतिरक्तता का अभिप्राय अङ्गविशेष की केशालों का स्वाभाविक से कहीं अधिक संख्या में खुल जाना है जिसके कारण उसका रङ्ग लाल और तापक्रम अधिक हो जाता है। शरीरव्यापारशास्त्र की दृष्टि से सचेष्टातिरक्तता व्यायाम, पाचन और स्रावाधिक्य के समय स्वभावतः देखी जाती है। उस समय अङ्ग की क्रियात्मक शक्ति (functional activity ) सदैव बढ़ी हुई मिलती है। शरीर-विकार-शास्त्र की दृष्टि से जब किसी ऊति विशेष पर आघात (trauma) हो जाता है तो उससे एक अतितिक्ती ( हिस्टेमीन) सदृश पदार्थ निकलता है जो समीपस्थ समस्त केशालों का घात कर देता है। जिससे वे सब अभिस्तीर्ण ( dilated ) हो जाती हैं। केशालों का अभिस्तरण करने में कोई वातिक कारक (nervous factor) भी सहायक होता है पर उसका पूर्ण ज्ञान अभी नहीं हो सका। परिधामनिक स्वायत्तचेता (स्वतन्त्रनाडी) तन्तुओं (periarterial sympathetic For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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