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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८० विकृतिविज्ञान प्रकोष्ठ रक्त से ठस जाता है। कुछ समय तनातनी चलती है और फिर वह कोष्ठक फैल जाता है। कपाटों के सिकुड़ जाने से या कार्यक्षम न होने से कभी कभी रक्त का प्रतिप्रवाहन ( regurgitation ) भी हो जाता है जिसके कारण भी पीछे का प्रकोष्ठ अत्यधिक रक्त से भर कर फैल जाता है। अनुगाभिक जीवन ( post natal life ) में हृत्कपाटीय विक्षत के द्वारा प्रायः कालिक सिराजन्य अधिरक्तता (chronic venous congestion ) होता है। जब फुफ्फुसों में होकर रक्त के प्रवाहित होने में बाधा पड़ती है तो उसके कारण सामान्य निश्चेष्ट अधिरक्तता के लक्षण दिखलाई पड़ते हैं और उससे हृदय का दक्षिण भाग अधिक शक्ति से उसे दूर करने के प्रयत्न करने में स्वयं पातित हो जाता है । यह उसके कोष्ठकों के अतिभार ( over loading ) का परिणाम ही है। निश्चेष्टातिरक्तता फुफ्फुस उति के तन्तूत्कर्ष ( fibrosis of the lung tissue ), चिरकालीन यक्ष्मा अथवा सैकतोत्कर्ष (सिलिकोसिस) नामक व्याधियों में फुफ्फुस की केशिकाओं और धमनिकाओं में केशाल तथा धमनिकीय व्रणशोथात्मक अभिलोपन ( inflammatory obliteration of the capillaries and the arterioles) हो जाने से केशालीय रक्तशैया घट जाती है अतः रक्त का स्वतन्त्र संवहन रुक जाता है। फुफ्फुस वातिकोशा विस्तृति ( emphysema) नामक रोग में भी रक्तशैया छोटी पड़ जाती है। जब बहुत काल तक रक्त का पीडन बढ़ा हुआ रहता है तो भी वही होता है। प्रारम्भ में हृरपेशी में अतिपुष्टि (hypertrophy ) होती है परन्तु जब रक्त की मात्रा कोष्ठकों में बराबर बढ़ती ही जाती है और खपत तदनुसार नहीं होती तो फिर रक्तपूर्ण कोष्ठक फैलने लगता है और कालान्तर में पूर्णतया फैलकर उसके सङ्कोच और विकास के क्रमिक कार्य को शिथिल कर देता है। यही हृभेद ( heart failure ) कहलाता है। कार्य में कमी आने से निश्चेष्ट अतिरक्तता फुफ्फुसादिक में और अधिक होने लगती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि कारण कुछ भी हो परिणाम एक ही रहता है तथा सामान्य. निश्चेष्ट अधिरक्तता के साथ साथ हृदय के विस्फार और पात का भी सहयोग रहता है। सिरागत रक्तसंवहन दो उद्देश्यों को सामने रख कर होता है-एक तो यह कि अशुद्ध रक्त को फुफ्फुसों में ले जाकर उसे जारकजनित ( oxygenated ) कर दिया जावे, दूसरे यह कि अपचय ( ketabolic metabolism ) द्वारा उत्पन्न विषैले पदार्थों को दूर कर दिया जावे। परन्तु सामान्य निश्चेष्ट अधिरक्तता (general passive congestion ) इन दोनों कार्यों में बाधा उपस्थित करके कोशाओं में अजारकता (anoxaemia) तथा उनके अपचयजन्य उत्पादों ( catabolites) का संग्रह कर देता है। सिरागत रक्त के संवहन में चाहे प्रत्यक्ष रुकावट पड़े या हृद्भेद या हृत्पात हो परन्तु जो मुख्यतः देखा जाता है वह है शरीरस्थ सिराओं और केशालों में रक्त का एकत्रित और स्थिरीभूत (stagnatad ) होना। इस प्रकरण में आगे के परिवर्तनों का मूल कारण वाहिनीप्राचीरों में जारकादि पोषणकों का For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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