SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "२६६ विकृतिविज्ञान स्थिर या प्रवाहित किसी भी प्रकार के रक्त में उसी दृष्टि से श्वेत या लाल रङ्ग के घनास्र बनते हैं। रोगाणुता ( sepsis ) की दृष्टि से रोगाण्विक ( septic ) तथा रोगाणु विरहित ( aseptic ) दोनों प्रकार के घनास्र देखे जाते हैं। जब प्रवाहित रक्त में आतंचन होता है तो श्वेत या मिश्रित घनास्त्र का उदय होता है। धमनी-विस्फार के स्यून ( sac of the aneurysm ) में या आघातप्राप्त हृत्कपाटों में भी श्वेत या मिश्रित प्रकार का घनास्र मिलता है। ____ लाल घनास्त्र स्थिर रक्त में मिलता है। जब किसी वाहिनी का बन्ध (ligature) किया जाता है तो उसके दोनों ओर वाहिनी-प्राचीर से चिपका हुआ लाल, मृदु, धनात्र बनता है। आतंचन (coagulation of blood ), की क्रिया बहुत मन्दगति से होती है। वाहिनी-प्राचीरों के साथ संसक्त घनास्त्र सूख कर कम लचीला हो जाता है। यदि यही रक्तधारा में किसी प्रकार चला आवे तो इसके ऊपर तन्त्वि के चढ़ जाने से यह भी श्वेत घनास्त्र में परिणत हो सकता है। प्रवाहित रक्तधारा में यदि कहीं उसके अन्तश्छद को आघात पहुँचता है तो रक्त बिम्बाणु आघात-प्राप्त स्थान में अभिलग्न हो जाते हैं। यदि आघातस्थान अधिक गम्भीर हुआ तो और अधिक बिम्बाणु वहाँ अधिक से अधिक संख्या में जमते हैं । उन बिम्बाणुओं में से घनास्त्रेद (थ्रोम्बोकीनेज) स्वतन्त्र होता है तथा तन्वि ( fibrin ) का निर्माण अत्यल्प मात्रा में होता है जिसमें श्वेत और लाल दोनों प्रकार के कण फंस जाते हैं । फिर इसी में और बिम्बाणु फँसते रहते हैं और इस प्रकार एक घनास्र का निर्माण होता है। जिसे काटने में अनेक स्तर मिलते हैं। घनास्त्र में धीरे धीरे तन्त्वि सङ्कुचित होने लगती है और वह काचरीकृत (hyalinised ) होकर श्वेत घनास्त्र बन जाती है। इसका रंग आरक्त या धूसर होता है। वाहिनी को अल्पांश या पूर्णाश में अवरुद्ध करने के कारण घनास्त्र को क्रमशः प्राचीरीय ( parietal ) या अवरोधक ( obstructive ) इन दो प्रकारों में भी विभक्त किया जाता है। प्राचीरी घनास्त्र श्वेत वर्ण का होता है। इसके द्वारा वाहिनी के मुख का अत्यल्प भाग अवरुद्ध रहता है तथा रक्त का आवागमन जारी रहता है। अवरोधक घनास्त्र पूर्णतः मुख को अवरुद्ध कर देता है । यह श्वेत और लाल दोनों के मिश्रित वर्ण का होता है । आतंच भी इसी प्रकार का देखा जाता है । यद्यपि धनात्रों का जन्म प्रवाहित रक्त में होता है पर वाहिनी का आंशिक अवरोध रक्त की मन्दता के कारण हो जाता है । प्रायः घनास्र की विस्तृति रक्तगति के अति द्रुत होने से रुक जाती है। और यह रोकने की क्रिया एक वाहिनी और उसकी सहायक वाहिनी के सङ्गमस्थल पर विशेष देखी जाती है। पर कभी कभी तो पाद से लेकर अधरामहासिरा तक सिरा का रक्त रक्तपरिभ्रमण की दिशा में या विरुद्ध पूर्णतः जम जाता है । जो अवरोधक घनास्र होते हैं वे प्रायः वाहिनी की पूरी लम्बाई में रक्त को जमा देते हैं। उपर्युक्त प्रकारों के अतिरिक्त निम्न प्रकार और पाये जाते हैं: For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy