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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रक्तपरिवहन की विकृतियाँ २६५ जाना भी है। जब जारकविहीन रक्त धीरे धीरे सिराओं में बहता है तब ये उत्पाद अन्तश्छद को विदीर्ण कर देते हैं और आतंचन के कारण बनते हैं। हृदय के द्विदल कपाट के रोग में जो द्विदलीय निरोध (mitral stenosis) होता है सिरा संवहन अवरुद्ध होकर फुफ्फुसाभिगा धमनियों से हृदय के दक्षिण भाग तक निश्चेष्ट रक्ताधिक्य ( passive congestion ) हो जाता है। यहाँ आतंचन का कारण जारक की कमी और इन उत्पादों की अतिशय उपस्थिति है। इसी कारण दक्षिण आन्त्रिक पुच्छ में भी रक्तातंचन प्रायशः मिलता है। यही कारण प्रगंडित सिराओं में आतंचन के लिए दिया जा सकता है। ___ यदि धमनी का अन्तश्छद स्वस्थ हो तो फिर रक्त कितनी ही मन्थरगति से उसमें बहता रहे घनास्रोत्कर्ष में वह गति प्राथमिक कारण कदापि नहीं बन सकती। पर जब एक बार रक्त धारा में घनास्र उत्पन्न हो गया तो फिर ज्यों ज्यों रक्त की संवहन गति मन्द होती जावेगी त्यों त्यों घनास्त्र पर तन्त्वि जमती चली जावेगी और वह मोटा पड़ता चला जावेगा। ऐसा घनास्त्र वाहिनी के अन्तःस्तर में एक स्थल पर संश्लिष्ट नहीं होता अपि तु रक्तधारा में बहता है और वह किसी भी अन्य अङ्ग में अवस्थान कर सकता है। उदाहरण स्वरूप स्त्री की श्रोणिगुहा (pelvis) में यदि कोई शस्त्रकर्म किया गया हो तो वहाँ की सिराएँ घनास्रों से भर जाती हैं। जब तक रुग्णा स्थिर और शान्त रहती है कोई हानि नहीं होती पर ज्यों ही वह हिली डुली कि घनास्त्र निकल कर फुफ्फुसाभिगा धमनी में पहुँच कर तत्काल मारक सिद्ध हो जाता है। गम्भीर रक्तस्राव के पश्चात् रक्त में आतंचन ( clotting ) बढ़ता जाता है। तीव्र आमवात, विसर्प, फुफ्फुसपाक तथा उरस्तोय में भी यह प्रवृत्ति देखी जाती है । सारांश यह है कि घनास्रोत्कर्ष में ३ प्रधान हेतु हैं:१. रक्त में सूक्ष्म रोगाणुओं और उनके उत्पाद ( products ) की उपस्थिति । २. रक्त-बिम्बाणुओं की वृद्धि । यह तीव्रसन्ताप, रक्तक्षय, श्वेतकणमयता (leucocythaemia) में देखी जाती है। ३. तन्त्वि की मात्रा में वृद्धि । यह फुफ्फुसपाक में देखी जाती है । तथा तन्त्वि निर्माता यकृत् में कम हो जाती है। कैल्शियम के लवणों की उपस्थिति जहाँ रक्त की सान्द्रता को बढ़ाती है वहाँ तिग्मीय (आग्जलेट्स) उसको कम करते हैं। इसी प्रकार कोशा की क्रिया से प्राप्त न्यष्टीली ( nuclein) भी उसी प्रकार सान्द्रता को बढ़ाती है एवं उसके श्वितधु ( albumoses ) की उपस्थिति सान्द्रता को रोकती है। तीव्र रोगाणुरक्तता ( septicaemia ) में रक्त बहुत तरल रहता है और जल्दी जमता नहीं। यकृत् तथा प्लीहा पर गम्भीर क्ष-किरण डालने के बाद आतंचन काल कम हो जाता है। घनास्त्र के लक्षण और प्रकार मृत्यूत्तरकालीन घनास्त्र का वर्णन न्याय वैद्यक में मिलता है। जीवनकालीन धनास्त्र का वर्णन यहाँ दिया गया है: २३, २४ वि० For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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