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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रक्त परिवहन की विकृतियाँ २६७ १. कन्दुकीय घनात्र- यह अनेक स्तरयुक्त गोल घनात्र होता है जो हृदयालिन्दों में ( विशेषकर अलिन्दपुच्छ में ) पाया जाता है । इसका प्रधान कारण द्विपत्रक द्वार की सन्निरोधोत्कर्षता ( stenosis of the mitral valve ) है । यह स्तर युक्त ( laminated ) होता है । ये स्तर तन्त्वि ( fibrin ) के होते हैं । कभी कभी किसी का केन्द्र भाग मृदु होने से वे अर्द्धतरल देखे जाते हैं । २. काचर घनात्र—ये सूक्ष्मातिसूक्ष्म केशिकाओं में रक्त का आतंचन करके उन्हें अवरुद्ध कर देते हैं । इन्हें विगार्ट के तंत्वि-रंजक से गहरा नीला रंग सकते हैं । ३. तन्त्विघनास्र —- यह फुफ्फुसपाक के पश्चात् तुद्र वाहिनियों में देखा जाता है । जब अतिश्वेतरक्तता ( ( leukaemia ) में वाहिनियाँ श्वेतकणों से पूर्णतः भर दी जाती हैं तो उसे कुछ श्वेतकणीय घनात्र के नाम से पुकारते हैं पर वे घना नहीं हैं । घना का अन्तिम परिवर्तन आगे चल कर घनात्र रङ्गहीन हो जाते हैं और वे या तो मृदु या समंगीकृत ( organised ) हो जाते हैं या उपसृष्ट होकर पूयोत्पत्ति करने लगते हैं । सर्व प्रथम घना बनता है फिर वह सङ्कोच करता है तदनन्तर वह वाहिनीप्राचीर से छूटकर पृथक हो जाता है । तत्पश्चात् उसके लाल कणों का अंशन होने लगता है । उसकी शोणवर्तुलि स्वतन्त्र होकर घनास्त्र के बाहर व्याप्त होने लगती है। यद्यपि उसका कुछ भाग कणदार ( granular ) शोणितेयी ( haematoidin ) भी बन जाता है । परिणामस्वरूप घनास का रंग गहरा सुर्ख नहीं रहता अपि तु कर्बुरित (mottled ) आरक्तधूसर हो जाता है। यह क्रिया घनास्त्र के केन्द्र से प्रारम्भ होकर सप्ताहों में या महीनों में पूर्ण होती है । कभी कभी घना पूर्णतः या अंशतः नष्ट भी हो जाता है जिसमें दो कारण होते हैं । एक तो आत्मशोषण (autolysis ) की प्रवृत्ति से उसका मृदु हो जाना, तथा दूसरे भक्षकायाणुओं की क्रिया से । कभी कभी आत्मशोषण न होकर उपसर्ग के कारण भी मृदुता या मार्दव होता है पर तब रोगी के शरीर में पूयरक्तता (pyemia) होकर मृत्यु हो सकती है । aria की पञ्चत्व-प्राप्ति ( organisation of thrombus ) – यह क्रिया आघातप्राप्त अन्तश्छद या जहाँ घनात्र वाहिनीप्राचीर से चिपका हुआ है वहाँ प्रारम्भ होती है । सर्व प्रथम वहाँ पर श्वेत कणों का आगमन होता है जो घनावस्थ तत्व को ले जाते हैं । इसी समय उपान्तश्छदीय ( subendothelial ) धातु से नवीन केशिकीय रक्तवाहिनियाँ तथा तन्तुरुह ( fibro blasts ) बनने लगते हैं । यदि इस समय तक घनास्र सिकुड़ चुका तो उसके ऊपर अन्तश्छद बन जाता है पर यदि वाहिनी को वह अवरुद्ध किये हुए रहा तो वहाँ तन्तूत्कर्ष ( fibrosis ) होने लगता है और सारी वाहिनी एक तान्तव सूत्र ( fibrous band ) का रूप धारण कर लेती है । पर जहाँ सिराजन्य घनास्र होता है जैसे श्वेतपाद ( Phlegmasia For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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