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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव २०७ औलीवर-ने शशकों और मनुष्यों के मस्तिष्कपाक की तुलना करके यह बताया कि दोनों की विकृति प्रारम्भ में एक सी रहने पर भी आगे चल कर बदल जाती है। गुडपाश्चर ने कहा है कि जो विषाणु इस रोग को फैलाता है वह वातनाडियों के अक्षरम्भों में से मार्ग बनाता है। विमजिकञ्चुक इसे अपने स्थल में रखती है पर जब यह केन्द्र पर पहुँचता है तो फिर इतस्ततः फैल जाता है। लेवैडिटी-सीसामान्य के विषाणु को ही इसका कारण मानता है। परद्रौ-सीसामान्य के विषाणु के किसी उग्र प्रकार को इसका कारण मानना चाहता है। परन्तु सीसामान्य बड़ी सरलता के साथ किसी अन्य में पहुँचाया जा सकता है और इसका विषाणु बड़ी कठिनाई से उपसर्ग करता है। इस कठिनाई को उसने समझाते हुए कहा है कि मनुष्य के मस्तिष्क में आक्रामक ( aggressin ) और प्रतिद्वन्द्वी (antibody ) दो कारक होते हैं जिनमें प्रथम विषाणु की वृद्धि करता है और द्वितीय उसकी वृद्धि को रोकता है इसी कारण सीसामान्य का विषाणु मस्तिष्कपाक करने में देर लगाता है। उसने इस प्रतिद्वन्द्वी कारक को नष्ट करने के लिए मस्तिष्क को मधुरी और बर्फ में रखा। प्रतिद्वन्द्वी कारक के समाप्त होने पर फिर इस मस्तिष्क में स्थित विषाणु द्वारा शशकों में सरलता से रोगोत्पत्ति की जा सकती है ऐसा उसने बताया है। ___ सीसामान्य के द्वारा इस रोग की उत्पत्ति को सिद्ध करने के मार्ग में अनेक बाधाएँ हैं जिन्हें पहले दूर कर लेना होगा तभी इस मत का संसार स्वागत करेगा। सबसे पहले तो हम देखते हैं कि सीसामान्य का जितना प्रसार अधिक है व्यापक मस्तिष्कपाक का उतना ही कम है। दूसरे मस्तिष्कपाक जिन जिनको हुआ है उनमें ओष्ठ या अक्षगत सी का कोई उदाहरण नहीं देखा गया। लक्षणों का विक्षतों से सम्बन्ध-व्यापक मस्तिष्कपाक में जो लक्षण देखे जाते हैं उनका विक्षतों से क्या सम्बन्ध है इसे कहना अत्यन्त कठिन है। पहली बात तो यह है कि कोई रोगी इस रोग में सोता है और कोई बकता है परन्तु दोनों दशाओं में विक्षत एक से ही देखे जाते हैं। ऐसा लगता है कि एक देश में रोग किसी एक रूप में प्रारम्भ होता है और धीरे धीरे अपना रूप बदलता जाता है तथा अन्त में पूर्णतः विलुप्त हो जाता है। विनीपेग की दो महामारियों के मध्य में ३ वर्ष का अन्तर है । एक में सुषुप्ति और निष्क्रियता का बोलबाला रहा और मृत्यु संख्या ३९ प्रतिशत रही। दूसरी में अतिक्रियता और प्रलाप के साथ मृत्यु संख्या २५ प्रतिशत मिली। अब हम रोग के प्रमुख लक्षणों को लेते हुए उनका सम्बन्ध विक्षतों से स्थापित करते हैं। सुषुप्ति-रोगी की सुषुप्तावस्था, जिससे कि उसे जगाया जा सकता है परन्तु जगते ही फिर वह उसी अवस्था को पहुँच जाता है, इसका कारण अज्ञात है। इस अज्ञान का कारण हमारा निद्रा के कारण का ज्ञान न होना भी है। इतना हम कह सकते हैं कि नेत्र चेष्टनी नाडी ( oculomotor ) की क्रियाओं की गड़बड़ी इसका प्रधान हेतु है जिनका कारण मध्यमस्तिष्क में विक्षतों की उपस्थिति है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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