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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव १८६ १. तीव्र मस्तिष्कच्छदपाक में तरल पूयीय होता है उसमें सहस्रों कोशा रहते हैं जो अधिकांशतः बहुन्यष्टि ही होते हैं, प्रोभूजिन बहुत अधिक बढ़ जाती है और शर्करा की मात्रा या तो बिल्कुल घट जाती है या अनुपस्थित रहती है । नीरेय प्रकृतावस्था से कम मिलते हैं तथा जिस रोगाणु के कारण मस्तिष्कच्छदपाक हुआ है वह तरल में मिल जाता है परन्तु मस्तिष्कगोलाणु ( meningococcus ) के लिए संवर्ध ( culture ) अत्यन्त आवश्यक है । कर्णमूलशोथ ( mumps ) के साथ होने वाले मस्तिष्कच्छदपाक में लसीकोशोत्कर्ष इतना अधिक होता है कि प्रतिघन मिलीमीटर तरल में १००० लसीकोशा तक देख पड़ते हैं। वहां शर्करा की प्रकृत मात्रा मिल जाती है । कर्णमूलशोथ अकेला होने पर भी लसीकोशों की संख्या मस्तिष्कोद में बढ़ जाती है । I लस्य मस्किष्कच्छदपाक ( serous meningitis ) में रोगाणु नहीं मिलते और शर्करा भी अपनी प्रकृत मात्रा में पायी जाती है कोशाओं की संख्या कुछ बढ़ जाती है या ज्यों की त्यों भी रह सकती है । लस्यमस्तिष्कच्छदपाक का प्रमुख कारण करोटि वायुकोटरों ( cranial air sinuses ) का व्रणशोथ होता है विशेष कर गोस्तनककोटरपाक ( inflammations of the mastoid air sinuses ) में यह देखा जाता है। इसके साथ मस्तिष्कविद्रधि भी हो सकती है । शिशुओं में तीव्र मस्तिष्कच्छदपाक के सम्पूर्ण लक्षण मिल सकते हैं परन्तु तरल में केवल परिवर्तन उसका मात्राधिक्य होता है जो कटिवेध द्वारा तुरत कम किया जा सकता है। २. यक्ष्माजन्य मस्तिष्कच्छदपाक में तरल स्वच्छ या दूधिया वर्ण का देखा जाता है; स्थिर करने पर उसमें तन्त्विजाल बन जाता है; उसमें लसीकोशोत्कर्ष पर्याप्त होता है पर साथ साथ बहुन्यष्टिकोशा भी मिलते हैं; प्रोभूजिन की मात्रा खूब बढ़ती है; शर्करा का पूर्णतः अभाव नहीं होता पर उसकी मात्रा अवश्य कम हो जाती है; नीरेय इस रोग में न्यूनतम पाये जाते हैं, यदि पर्याप्त परिश्रम किया जाये तो यचमादण्डाणु भी मिल सकता है । ३. तीव्र सुषुम्नाधूसरद्रव्यपाक तथा जनपदोद्ध्वंसक मस्तिष्कपाक दोनों में मस्तिष्कद प्रायः एक सा ही रहता है और बहुत करके यक्ष्माजन्य मस्तिष्कच्छदपाक से मिलता जुलता होता है । तरल प्रायः स्वच्छ होता है या उसमें स्वल्प पारान्धता देखी जा सकती है; कोशा बढ़ जाते हैं, प्रोभूजिन उनसे कम बढ़ती है, शर्करा और नीरेय अपनी प्रकृतावस्था में ही रहते हैं । सुषुम्नाधूसरद्रव्यपाक में तरल को रख देने से स्वल्प तन्विजाल बनता है । मस्तिष्कपाक में शर्करा प्रकृत मात्रा से ऊपर रहती है तथा श्लेषाभ स्वर्ण वक्र ( colloidal gold curve ) घातिक स्वरूप ( paretic type ) की होती है । मस्तिष्कपाक में नौन लक्षण के विपरीत कोशाधिक्य और प्रकृत प्रोभूजिन देखी जाती है । ४. सर्पी जोस्टर ( herpes zoster ) में जैसा चित्र अभी बताया है वैसा ही For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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