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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६० विकृतिविज्ञान पाया जाता है उसमें कम या अधिक दर्जे का लसीकोशोत्कर्ष देखा जाता है । प्रोभूजिन प्रकृत या स्वल्प प्रवृद्ध देखी जाती है । ५. वातनाडीसंस्थान के फिरंग में लसीकोशोत्कर्ष, प्रोभूजिनाधिक्य तथा फिरंग के विविध परीक्षण अस्त्यात्मक ( positive ) मिलते हैं । ६. प्रमस्तिष्कीय रक्तस्त्राव में जब वह निलयों या जालतानिकीय अवकाशों में होता है तो सुषुम्नास्थ तरल में रक्त देखा जाता है। यदि किसी कारण से रक्तस्राव गहराई में हो तो भी तरल का वर्ण २-३ दिन पश्चात् पीला पड़ जाता है दृढतानिकाधः ( subdural) रक्तस्राव होने पर मस्तिष्कोद तब तक स्वच्छ रहता है जब तक जालतानिका भी विदीर्ण न हो जावे । ७. मस्तिष्क विद्रधि में विद्रधि गहरी होने पर तरल प्रकृत रहता है । कोशा ( ५ से ३० ) और प्रोभूजिन ( ३० से ६० मिग्राम ) थोड़े बढ़ जाते हैं पर जब वह ऊपर आ जाती है तो शर्करा तथा नीरेय दोनों को उपजालतानिकीय अन्तराल में स्थित जीवाणु समाप्त कर देते हैं । ८. मस्तिकार्बुद में श्लेषार्बुद के साथ कोशा प्रकृत संख्यक भी रह सकते हैं तथा १० से ८० तक बढ़ भी सकते हैं, प्रोभूजिन पर्याप्त बढ़ती है यदि अर्बुद निलयों तक हो तो तरल पीतवर्णीय हो जाता है । तानिकार्बुदों में ये लक्षण नहीं मिलते | अर्बुदों के कारण तरल पर उच्च निपीड़ मिलता है । कटिवेध करना उस अवस्था में भय से रिक्त नहीं । ९. सौषुनिक अर्बुदों में या यक्ष्मा में या अपिढतानिकीय विद्रधि होने से सुषुम्नाकुल्या ( spinal canal ) का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है जिसके कारण अवरोध के नीचे एक बन्द गुहा बन जाती है। इस गुहा के तरल में फ्रायन लक्षण ( froin syndrome ) मिलता है अर्थात् तरल पीत वर्ण का होता है और तुरत आतश्चित हो जाता है । या दूसरा नौन लक्षण मिल सकता है जिसमें रंगहीन तरल अत्यधिक प्रोभूजिन और प्रकृत कोशा होते हैं । सर्वसामान्य चित्र होता है— पीतवर्णता (xanthochromia ) तथा शुक्ति की उपस्थिति । प्रोभूजिन ०५ प्रतिशत तक बढ़ जाती है । अवरोध के कारण क्वेकेनस्टेट चिन्ह नास्त्यात्मक होता है । अब हम व्रण शोधात्मक प्रमुख वातव्याधियों का वर्णन उपस्थित करते हैं । मस्तिष्कविद्रधि (Abscess of the Brain ) aeros की विधि प्राथमिक न होकर सदैव उत्तरजात होती है, उसके उपसर्ग की नाभि ( focus ) कहीं न कहीं अवश्य पाई जाती है । प्राथमिक उपसर्ग निम्न स्थलों में उसकी वारम्वारता के क्रम के अनुसार दिये जाते हैं : १ - मध्यकर्ण में पूयन २ - ललाट्य कोटर ( frontal sinus ) में पूयन ३ – नास्यकोटर ( nasal sinus ) में पूयन ४ - शिरोऽभिघात ( trauma of the head ) For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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