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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव १०६ dria ) का कारण है और अनीरोदता आमाशय के कर्कटार्बुद में विशेषतया देखी जाती है। मारात्मक अरक्तता ( pernicious anaemia ) आमाशयपाक देखा जाता है उसमें और इस आमाशयपाक में होता है क्योंकि उसमें जहां व्रणशोथ का नाम निशान भी व्रणशोथ या शोफ होना आवश्यक हो वहां तो आहार के ही अपुष्टिजनक होता है । में एक जो अपुष्टिक बहुत अधिक अन्तर नहीं होता जब कि इसमें किसी घटक का अभाव आन्त्रपाक ( Enteritis ) आन्त्रपाक में आन्त्र के सब भाग आ सकते हैं ग्रहणी ( duodenum ) से लेकर बृहद तक | परन्तु यह शब्द लघु अन्त्र तक ही प्रायशः सीमित रहता है । अन्त्र की वे सब गड़बड़े जिनमें उदरशूल, अतीसार तथा कभी कभी वमन भी सम्मिलित हो आन्त्र पाक के अन्तर्गत मानी जाती हैं । वमन होने पर उसे आमाशयान्त्रपाक (gastro-enteritis ) भी कहा जाता है । आन्त्रपाक के कई महत्वपूर्ण कारण हैं जिनमें आहारविषता (food poisoning ), आन्त्रिक ज्वर, ग्रहणी, आन्त्रिक क्षय मुख्य हैं। बहुत ऐसे भी कारण होते हैं जो पूर्णतः अज्ञात हैं पर जिनके कारण स्वल्पकालीन आन्त्रपाक देखा जाता है । आन्त्र में व्रणशोथ तीव्र और जीर्ण दोनों प्रकार का मिल सकता है। क्षुद्रान्त्र पर प्रभाव डालने में प्रमुख भाग आन्त्रिक ज्वर के जीवाणु लेते हैं। क्षुद्र और बृहत् दोनों आंतों पर प्रभावकारक उपान्त्रिक ज्वर के जीवाणु तथा यक्ष्मा के जीवाणु होते हैं तथा जो केवल बृहदान्त्र को ही व्रणशोथ से ग्रसते हैं वे ग्रहणी ( dysenteries ) जीवाणु, कवक (actinomycosis) सव्रण मलाशयपाक ( ulcerative colitis ) तथा फिरङ्ग के चक्राणु होते हैं । आन्त्रपुच्छपाक का कारण इनमें से भी कोई या अन्य भी हो सकता है । तीव्र आन्त्रपाक ( acute enteritis ) या आमाशयान्त्रपाक अतीसार ( diarrhoea ) के साथ होता है जिसके साथ में वमन हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता आहारजन्य विषता के कारण यह प्रायः होता है । स्थूलान्त्र में मल की गति इतनी द्रुत हो जाती है कि वहां पर कोई विकृति नहीं मिलती, तीव्रआन्पाक के साथ तीव्र आमाशयपाक मिल सकता है । आमाशयिक प्रतिश्याय के कारण तीव्र आन्त्रपाक देखा जा सकता है इस दशा में अतीसार एवं वमन दोनों लक्षण पाये जाते हैं । जीर्ण आन्त्रपाक, तीव्र आन्त्र का ही परिणाम होता है । कृमियों ( worms ) विशेष कर स्फीत कृमि ( tape worm ) द्वारा भी जीर्ण आन्त्रपाक बन सकता है । जो प्राकृतिक चिकित्सा विश्वासी सज्जन अत्यधिक अपच्य या दुष्पच्य वानस्पतिक पदार्थों का सेवन करते रहते हैं उनकी आँतों में इन पदार्थों की रगड़ से भी जीर्ण आन्त्रपाक बन सकता है । जब आमाशय में अम्ल की कमी होती है तो अम्ल की क्रिया द्वारा बिना पचे ही गया हुआ आहार भी आंतों को प्रक्षुब्ध कर देता है जिसके परिणामस्वरूप यह रोग मिल सकता है । जो व्यक्ति प्रायशः विरेचन द्रव्य 1 For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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