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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८ विकृतिविज्ञान जाती हैं। यह परिवर्तन मुद्रिकाद्वार या निजठरद्वार ( pyloric end ) पर पाया जाता है। आमाशय का छेद ( section ) लेने पर श्लेष्मास्त्रावी कोशाओं की संख्या अत्यधिक बढ़ी हुई देखी जाती है उनमें से बहुत मात्रा में श्लेष्मलस्राव होता हुआ पाया जाता है । यद्यपि श्लेष्मलकला स्वयं अतिपुष्ट नहीं होती परन्तु (१) शोथ (२) व्रणशोथकारक कोशाओं की भरमार तथा (३) उपश्लेष्मलकला के तन्तूत्कर्ष के कारण वह अतिपुष्ट दिखलाई देती है। शनैः शनैः प्रन्थियां अपुष्ट होना प्रारम्भ करती हैं जिसके कारण परमनीरोद ( hyperchlorhydria) उपनीरोद ( hypo. chlorhydria) में परिणत हो जाता है। उपनीरोदावस्था में श्लेष्मलकला की ग्रन्थियां विलुप्त हो जाती हैं और उसके सब आवरण ( coats ) क्षीणकाय हो जाते हैं। इसके कारण श्लेष्मलकला चिकनी और तनी हुई लगती है। ___जीर्ण या चिरकालीन आमाशयपाक एक ऐसी अवस्था है जो वर्षों चलती है। इस रोग के २ चक्र चलते है एक चक्र में श्लेष्मलकला की ग्रन्थियों का लुप्तीकरण प्रारम्भ होता है दूसरे चक्र में जो आघात ग्रन्थियों में हो जाता है उसे सुधारा जाता है। जब सुधार क्रिया चलती है तब श्लेष्मलकला व्रणशोथात्मक कोशाओं, बहुन्यष्टि, प्ररसकोशा, लसीकोशादि से भर जाती है और उसमें रक्ताधिक्य हो जाता है। जिसके कारण विशिष्ट प्रकार की ग्रन्थियां रचनाओं वाली कणात्मक ऊति का सृजन होता है। वयस्कों में जो इस रोग से पीडित होते हैं यदि अण्वीक्ष से उनके आमाशय के अन्तर भाग को देखा जावे तो कहीं कहीं द्वीप सरीखे श्लेष्मास्रावी कोशाओं के समूह मिलेंगे और शेष भाग ग्रन्थि विरहित अपुष्ट दिखाई देगा। ये क्षेत्र बृहदन्त्र की श्लेष्मलकला से इतने मिलते हैं कि अन्तर करना कठिन हो जाता है । शिशुओं के आमाशय में यह दृश्य देखने को नहीं मिलता। ' यह आवश्यक नहीं कि जीर्णामाशयपाक आमाशय की सम्पूर्ण श्लेष्मलकला को ही ग्रसे उस दृष्टि से स्थानिक ( localised ) तथा सार्वत्रिक (diffuse ) दो रूप इसके देखे जाते हैं। स्थानिक जीर्णामाशयपाक प्रायः निजठर या मुद्रिका द्वार के पास देखा जाता है और इसका सम्बन्ध प्रायः जीर्ण आमाशयिक व्रण के साथ होता है अथवा इसमें व्रण सरीखे लक्षण देखे जाते हैं चाहे व्रण हो या न हो। औतिकीय दृष्टि से ( histologicaly ) सम्पूर्ण आमाशय प्राचीर में व्रणशोथात्मक सूजन तथा व्रणशोथकारी बहुन्यष्टियों की कम या अधिक भरमार हो जाती है। श्लेष्मलकला पर गहरे या उथले अनेक अपरदन ( erosions ) देखे जाते हैं। ये अपरदन बहुधा ठीक हो जाते हैं पर कभी कभी वे जीर्ण व्रण का रूप भी धारण कर लेते हैं। आमाशयिक व्रण निर्माण के कारणों के ज्ञान में इस तथ्य का भी विचार कर लेना चाहिए। सार्वत्रिक प्रकार में व्रणशोथात्मक परिवर्तन अधिक नहीं देखे जाते बल्कि श्लेष्मलकला की अपुष्टि ही सर्वत्र देखी जाती है जिससे ऐसा ज्ञात होता है कि मानो इस विक्षत का प्रारम्भ काल व्रणशोथात्मक रहा हो। इस प्रकार के आमाशयपाक का सम्बन्ध कर्कटार्बुद ( carcinoma ) से होता है । श्लेष्मलकला की अपुष्टि ही अनीरोद (achlorhy. For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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