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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११० विकृतिविज्ञान सलोहयोग अथवा मल्लयुक्त पदार्थों का सेवन करते हैं उन्हें भी जीर्णान्त्रपाक से व्यथित देखा गया है। आमाशयिक अनम्लता तुदान्त्र में ऐसे अनेक रोगाणुओं को भेजने में समर्थ हो जाती है जो अम्ल में नष्ट हो सकते थे ऐसे रोगाणु ग्रसनी, नासा या मुख में रहते हैं। वे क्षुद्रान्त्र में पहुँच कर वहां प्रक्षोभकारक सिद्ध हो सकते हैं। जब किसी कारण से चुद्रान्त्रीय गतिस्थैर्य ( intestinal obstruction ) हो जाता है तो शुद्रान्त्र में रोगकारक जीवाणुओं की क्रियाशक्ति बहुत बढ़ जाती है जिससे वहां प्रक्षोभकारक रासायनिक पदार्थ उत्पन्न होने लगते हैं जिनके कारण अत्यन्त कष्ट दायक आन्त्रपाक देखा जाता है । वह तथ्य यह स्पष्ट कर सकता है कि क्यों क्षुद्रान्त्रीय गतिस्थैर्य में विबन्धन होकर अतीसार पाया जाता है। समग्र आमाशयपाक की भांति समग्र स्थानिक आन्त्रपाक ( localised phlegmonous enteritis) भी देखा जाता है और उसका कर्ता भी मालागोलाणु ही होता है जो उदरच्छदकलापाक तक कर सकता है। विकृतिविज्ञों ने आन्त्रपाक को दो रूपों में और स्पष्ट किया है, एक रूप पैनस या प्रसेकी आन्त्रपाक ( catarrhal enteritis ) है जिसका कारण आहारजन्य विषता है और जिसके जनक आन्त्रकोपी अन्नविषाणु (Salmonella enteritidis या Bacillus enteritidis या Gartener's bacillus ), अप्यान्त्र ज्वरदण्डाणु (B. paratyphosus B ) हैं जो तुदान्त्र में उपसर्ग ले जाते हैं। शिशुओं और बालकों को होने वाले व्यापक अतीसार (epidemic diarrhoea of the chil. dren ) रोग के कारण भी यह होता है। मूत्ररक्तता ( uraemia ) अथवा सौम्य रासायनिक विषों अथवा अन्य केन्द्रों से विस्थानान्तरित उपसर्गों के कारण भी यह होता है। इसमें श्लेष्मलकला तथा उसके नीचे की लसाभ स्यूनिकाएँ (lymphoid follicles ) सूज जाती हैं और उनमें रक्ताधिक्य हो जोता है तथा वहाँ से अतिमात्र श्लेष्मस्राव होता है । धरातल पर अनेक छोटे छोटे व्रण बने हुए देखे जाते हैं । अण्वीक्ष द्वारा देखने से व्रणशोथ में जो प्रायः चित्र प्रकट होता है वैसा ही यहां भी मिलता है । केशीय भरमार ( जिनमें लसीकोशा अधिक तथा बहुन्यष्टि कम) भी खूब मिलती है। दूसरा रूप कलावत् आन्त्रपाक ( membranous enteritis) है जो पैनल आन्त्रपाक के कारण विनष्ट हुई श्लेष्मलकला के धरातलीय विनाश पर जमी तन्त्विमत् कूटकला ( fibrinous false membrane ) के नाम पर चलता है। जब यह कला छूट जाती है तो उसके नीचे गहरे व्रण मिलते हैं। आन्त्रप्राचीर मोटी पड़ जाती है, उससे अधिरक्तता बढ़ जाती है तथा नैदानिकीय दृष्टि से रक्तातीसार, श्लेष्मा तथा निर्मोक (slough) मल में मिलते हैं । इस कलावत् आन्त्रपाक का प्रभाव स्थूलान्त्र एवं मलाशय पर अत्यधिक होता है। जब यह पाक समाप्त होता है तो इन स्थानों में तन्तूत्कर्ष होने से वहाँ की प्राचीर इतस्ततः संकीर्ण हो जाती है तथा उसमें अवरोधात्मक उपसंकोच ( obstructive constrictions) बन जाते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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