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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२ विकृतिविज्ञान प्रभाव पड़ता है। विशेष करके उसका पश्च भाग तो बढ़ कर छोटे बेर ( mulberry ) सा फूल जाता है । इस रोग में नासावरोध, तनु तथा श्लेष्मपूयीय नासाखावाधिक्य तथा छींकों का आना आदि लक्षण मिलते हैं । अचयिक नासाकलापाक ( Atrophic rhinitis ) को पीनस या अपीनस कहा जाता है । इसी का एक नाम पूतिनस्य ( ozaena ) भी है । यह एक जीर्ण कालिक अवस्था है । इसमें नासकला की अपुष्टि या शोष ( artophy ) होने लगता है जहां पचमल श्लेष्मलकला रहती है वह बदल कर आयतज ( cuboid ) या स्तृत ( stratified ) हो जाती है । तान्तव ऊति में वृद्धि हो जाती है । उसमें गोल और प्ररस कोशों की भरमार हो जाती है । श्लेष्मलकलास्थ ग्रन्थियां सूक्ष्म हो जाती हैं तथा रक्तवाहिनियां संकीर्ण या पूर्णतः छिद्र विहीन हो जाती हैं नासा का स्राव इन सब कारणों से रुक जाने के कारण खुरंट बहुत निकलते हैं और दुर्गन्ध भी बहुत आती है । यही परिवर्तन शुक्तिका तथा अन्य अस्थियों में भी देखा जा सकता है । नासा कोटरों के मार्गों का अवरोध होने से उनके रूद्ध स्रावों में अनेक पूयकारी या विकारी जीव आकर बढ़ने लगते हैं । इसके कारण नासाशोष और पूतिनस्य ये दो लक्षण विशेष मिलते हैं । नासाशोष को राइनाइटिस सिक्का ( rhinitis sicca ) भी कहते हैं इसमें नासागुहा के सूख जाने से श्वास लेने में अवरोध हो जाता है । शोष का कारण वृद्धिंगत वायु की रूक्षता और पित्त की उष्णता होती है जो श्लेष्मा का शोषण करती है इसी को भावमिश्र ने निम्न शब्दों में प्रकट किया है : - घ्राणाश्रिते श्लेष्मणि मारुतेन पित्तेन गाढं परिशोषिते च । समुच्छ्वसत्यूर्ध्वमधश्च कृच्छ्राद्यस्तस्य नासापरिशोष उक्तः ॥ इसे विदेह ने भी पुष्ट करते हुए लिखा है विशेष कफ के साथ रक्त का शोषण भी बतलाया है : : वातपित्तौ यदा प्राणं कफर क्तं विशोषयेत् । तदास्यादुछ्वसेन्नासात्तस्य शुष्कं विधीयते ॥ भृशं शुष्कावचूर्णेन नासाशोषं तु तं विदुः । - पूतिनासा (ozena ) में दुर्गन्ध का कारण बतलाते हुए विदेह लिखते हैं: कफपित्तमसृमिश्रं संचितं मूर्ध्नि देहिनाम् । विदग्धमूष्मणा गाढं रुजां कृत्वाक्षिशंखजाम् ॥ तेन प्रस्यन्दते प्राणात्सरक्तं पूतिपीतकम् । पूतिनस्यं तु तं विद्यात्प्राणकण्डुज्वरप्रदम् ॥ मूर्धा ( सिर या पुरःकपालास्थि तथा झर्झरास्थि के नासा कोटरों ) में कफपित्त और रक्त संचित हो जाते हैं जो ऊष्मा के द्वारा विदग्ध हो जाते हैं और नासास्राव को गाढ़ा कर देते हैं जिसके कारण नासा तथा शंखप्रदेश में शूल ( pain in the eyes and temples ) कर देते हैं तथा नासा से रक्तयुक्त पीला बदबूदार स्राव निकालते हैं जिसके कारण रोगी को दुर्गन्ध का स्पष्ट ज्ञान होता है थोड़ी खुजली तथा ज्वर भी ज्ञात होता है । आयुर्वेदीय पद्धति से विकृति निदर्शिनी इस शैली के जान लेने पर फिर कौन नवीन शैली की आवश्यकता रहती है। वायु कोटरों में पाक होने For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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