SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव ८१ कला के पक्ष्मों ( cilia) की भी क्रिया वृद्धि हो जाती है जिसके कारण नासा का स्राव शीघ्र शीघ्र बाहर निकाल दिया जाता है। ज्यों ज्यों दिन अधिक बीतते हैं नासाकला का बहुत अंश टूट फूट जाता है पचमों की क्रिया कम हो जाती है और स्राव इतना गाढ़ा होने लगता है कि वह बाहर नहीं फेंका जा पाता और नासाछिद्रों का अवरोध हो जाता है। इसी स्राव में जब स्थानिक कोशाओं के निर्मोक भी मिल जाते हैं तो उसका वर्ण पीला हो जाता है। व्रणशोथ की पक्कावस्था पूयोत्पत्तिकारक होती है इसी से पक्क प्रतिश्याय के स्राव में पूय की उपस्थिति अनहोनी घटना नहीं है। इस रोग में ज्वर होना आवश्यक नहीं है। थोड़े समय बाद स्थिति साधारण हो जाती है। इसके हेतुओं के सम्बन्ध में सुश्रुत लिखता है नारीप्रसङ्गः शिरसोऽभितापो धूमो रजः शीतमतिप्रतापः । सन्धारणं मूत्रपुरीषयोश्च सद्यः प्रतिश्यायनिदानमुक्तम् ॥ चयं गता मूर्द्धनि मारुतादयः पृथक् समस्ताश्च तथैव शोणितम् । प्रकोप्यमाणा विविधैः प्रकोपणैर्नृणां प्रतिश्यायकरा भवन्ति हि ॥ (सु. उ. त. अ. २४) स्त्रीसहवास, शिरःशूल, धूम, रज, शीताधिक्य, वेगविधारण, प्रतिश्यायकारक सद्योजनक हेतु हैं यथा दोषों का सिर में संचित होना और रक्त का भी संचित होना तथा क्रोधादि अनेक प्रकोपक कारणों से उनका प्रकुपित होना ये प्रतिश्याय के कालान्तर जनक कारण हैं दोनों प्रकार के कारणों से उपसर्ग तथा ऋतुगत प्रभाव दोनों का भाव पूर्णतः आता है जिन्हें नवीनजन मानते हैं। वे मानते हैं कि यह दशा औपसर्गिक भी हैं तथा सांस्पर्शिक ( contagious ) भी। ___ नासाकला पाक या प्रतिश्याय को आयुर्वेदज्ञों ने वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक सान्निपातिक तथा रक्तज करके माना है। वातिक में तनु स्रावाधिक, पैत्तिक में उष्णपीत स्रावाधिक्य, श्लैष्मिक में गुरु शीत शुक्ल स्रावाधिक्य, द्वन्द्वज या त्रिदोषज में इन्हीं लक्षणों का सम्मेलन तथा रक्तज में सरक्त स्रावाधिक्य मिलता है। रक्तज में कृमि तक मिलने का इतिहास है। ___ सपूय नासाकलापाक ( Purulent rhinitis) से नवीन उसे लेते हैं जिसमें शुद्ध पूय ही निस्सरित होता है। यह एक शिशु या बाल रोग है। श्लेष्मा और पूय का मिश्र तो श्लैष्मिक प्रतिश्याय में आ जाता है । शुद्ध पूय के नासारन्ध्रों से निकलने के कई कारण हैं उनमें सहजफिरंग, बाह्य द्रव्य की उपस्थिति या कंठशालूकों (adenoids ) का होना मुख्य हैं। ___ जीर्ण परमचयिक नासाकलापाक प्रतिश्याय की उत्तरकालीन अवस्थामात्र है। बहुत समय तक प्रतिश्याय रहने के कारण न केवल मृदु अपि तु अस्थि आदि कठिन ऊतियों में भी परमचय होने लगता है तथा वहां जीर्ण अधिरक्तता भी पाई जाती हैइस रोग में नासा के सभी भागों का प्रगुणन होने लगता है श्लेष्मल कला, श्लेषाभ भाग, लसाभ भाग, ग्रन्थिकीय (glandular) भाग और रक्तवाहिन्य ( vascular ) भाग सभी में प्रगुणन दिखाई पड़ता है। अधोशुक्तिका पर इस प्रगुणन का विशेष For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy