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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव ६६ सिराओं की प्राचीरें दोनों से विभिन्न प्रकार की होती है । वे धमनी प्राचीरों से काफी पतली होती हैं तथा उनमें पेशी तन्तु भी बहुत अल्प मात्रा में होते हैं । सिराओं के बाह्य और मध्य चोल मिलकर एक होते हैं जो तान्तव ऊति एवं प्रत्यास्थ तन्तुओं के संमिश्रण से बनता है । आन्तर चोल धमनी के आन्तर चोल से अधिक दृढ़ होता है। अधिकांश सिराओं में कपाट होते हैं जो रक्त को विरुद्ध गति करने नहीं देते। ये अर्द्धचन्द्राकार होते हैं और वे तान्तव ऊति के बनते हैं जिन पर साधारण अन्तश्छद चढ़ा होता है । इन कपाों में कहीं एक और कहीं दो पल्लव ( flaps ) होते हैं। देखने में ये हृदय के महाधामनिक या फुफ्फुस कपाों के सदृश होते हैं । अनेक महत्वपूर्ण सिराएँ बिना कपाटों के भी होती हैं इन सिराओं में केशिका भाजिसिरा, उत्तर महानीला, अधरा महानीला, याकृतसिरा, वृक्कसिरा, मुष्कसिरा ( spermatic vein ), गुदसिरा, पृष्ठनितम्बसिरा, और्वी, मन्या आदि सिराएँ विना कपाट के होती है। जब कभी कोई सिरा प्रफुल्लित ( distended ) हो जाती है तो उसके कपाटों का कार्य बन्द हो जाता है । बन्द होने से रक्त का ऊपर चढ़ना और भी अधिक रुक जाने से वह और भी अधिक प्रफुल्लित हो जाती है । इस प्रकार एक दुश्चक्र चल पड़ता है । 1 लसीका संस्थान में दो प्रमुख रचनाएँ होती हैं लसीकावाहिनियां जिन्हें लसीकिनी या लसवहा भी कहते हैं तथा लसीकाग्रन्थियां । केशालों की प्राचीरों से निकल कर लस आस-पास की ऊतियों का पोषण करता है फिर अन्तर्कोशीय स्थानों में संचित होता है बहुत से अवकाशों और स्यूनों में भी वह एकत्र हो जाता है वहां से लसीकिनियों द्वारा वह मुख्या रसकुल्या ( thoracic duct ) तथा दक्षिणा रसकुल्या द्वारा रक्तधारा में पहुंच जाता है । लसवहाओं की रचना सिरा की रचना से मिलती-जुलती होती है यद्यपि उसकी प्राचीरें सिराप्राचीरों से कहीं अधिक तनु होती हैं और उनमें अधिक कपाट होते हैं । ये सवहाएँ रसकुल्याओं की ओर गमन करते समय बीच-बीच में अनेक लसग्रन्थियों में चली जाती हैं और वहां से पुनः अपना मार्ग बना लेती हैं । लसग्रन्थियां मानव शरीर का एक विशिष्ट चिह्न है अन्य प्राणियों में ये इतनी अधिक नहीं मिलतीं । मनुष्य में इनके विशेष समूह एवं शृङ्खलाएँ होती हैं। ये ग्रन्थियां परिप्रावरीय रचनाएँ ( encapsulated structures ) हैं । इनका एक वृन्त या द्वार (hilum ) होता है जिसमें होकर रक्तवहा एवं लसवहा प्रवेश करती हैं तथा निकलती भी हैं । इन ग्रन्थियों का संधार ( stroma ) तनु संयोजी ऊति द्वारा निर्मित होता है, इस संधार के अवकाशों में सितकोशा भरे पड़े होते हैं । इन ग्रन्थियां से जब लस पार होता है तो उसका निःस्यन्दन या पावन ( filtration ) होता है उसमें बह कर आए हुए जीवाणु, क्षेप्य उत्पाद ( waste products ) बाह्य द्रव्य ( foreign matter ), अन्य कोसा आदि यहीं छांट कर पृथक् कर दिये जाते हैं और इस कार्य को करने वाले होते हैं-- सितकोशा । लसीकाग्रन्थियां इस For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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