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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३ 1 उन विकृतियों के स्थूल और सूक्ष्म स्वरूपों का विवरण करना और उनके आधार पर विविध व्याधियों में उत्पन्न होने वाले लक्षणों का यावच्छक्य स्पष्टीकरण देना यह विकृतिविज्ञान का मुख्य उद्देश्य होता है । यह उद्देश्य विविध व्याधियों से मृत व्यक्तियों के संपूर्ण इतिहास के साथ मरणोत्तर परीक्षण से उनके शरीर के धात्वाशयादि अंगों के भीतर पाये जाने वाली विकृतियों का मेल किये बिना सिद्ध नहीं हो सकता । प्राचीन काल में इस उद्देश्य से शवपरीक्षण न होने के कारण विकृतिविज्ञान जीवितावस्था में विविध रोगियों के बाह्य परीक्षण के समय प्राप्त विकृतियों तक ही मर्यादित रहा । अर्थात् वह बहुत ही छोटा रहा और उसके लिए स्वतन्त्र अस्तित्व प्राप्त न हो सका । सोलहवें सत्रहवें शताब्दि में पाश्चात्य देशों में विकृति विज्ञान के लिए शव परीक्षण का प्रारम्भ किया गया । मार्गनी ( Morgagni) ने सन १७६१ में उसके पूर्व किये ये सैकड़ों शवपरीक्षणों की छानबीन करके उनमें से सात सौ शवपरीक्षणों के वृत्तांत तीन भागों के एक बृहत् संग्रह ग्रन्थ में प्रकाशित किये और इनमें रोगियों के धात्वाशयादि अंगों में पाये गये चिन्हों और लक्षणों का संबंध उनके शवों के भीतर पायी गयी रचनात्मक विकृतियों के साथ कहाँ तक बैठता है इसकी चर्चा की। इसके पश्चात् विकृतिविज्ञान के लिए स्वतन्त्र अस्तित्व प्राप्त हुआ । आगे उन्नीसवीं शताब्दि में वीरचौ ( Rudolf Virchow ) ने शरीरगत विकृतियों के परीक्षण में सूक्ष्मदर्शक का उपयोग आरम्भ किया और कोशिकीय विकृतिविज्ञान ( Cellular Pathology ) पर अपना ग्रन्थ १८४६ में प्रकाशित किया । इससे रोगों के स्वरूप की तथा उनके अभ्यास के लिए कौन से साधन प्रयुक्त होने चाहिएँ तथा प्रयुक्त हो सकते हैं उसके सम्बन्ध की कल्पना में क्रान्ति पैदा की और विकृतिविज्ञान जो पहले रोगनिदानान्तर्गत एक छोटा सा विषय था उसको रोगनिदान का अधिष्ठान बना दिया । रोग निदान और विकृति विज्ञान - वैद्यक में विकृति (विकार) और रोग ( व्याधि ) ये दो शब्द बराबर प्रयुक्त होते हैं । दोनों का अर्थ वस्तुतः एक ही हैरोगस्तु दोषवैषम्यं दोषसाम्यमरोगता । विकारोधातुवैषम्यं साम्यं प्रकृतिरुच्यते ॥ परन्तु व्यवहार में या लौकिक अर्थ में दोनों में अन्तर किया जा सकता है । विकृतियों में शरीर के धात्वाशयादि अंगों की वैषम्यावस्था पर तथा उनके रचनात्मक और स्वरूपात्मक ( Morphological and structural ) परिवर्तनों पर जोर दिया जाता है, रोगों में उनके कार्यात्मक ( Functional ) परिवर्तनों पर ध्यान दिया जाता है । विकृतियों का उल्लेख सदैव धात्वाशयादि अंगों से सम्बन्धित होता और रोगों का अधिकतर लक्षणों से होता है । विकृतियों में प्रकट लक्षण हो सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं, रोगों में प्रकट लक्षण जरूर होते हैं और उन लक्षणों के आधार पर उनको हम लौकिक नाम देते हैं । वास्तव में देखा जाय तो जिनको हम लौकिकदृष्ट्या अमुकअमुक रोग कहते हैं वे विकृतियों के उत्तरकालीन परिणाम ( Disease result ) For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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