SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २ ] ( १ ) कुलज, सहज या प्रकृतिज (Hereditary, congenital or constitutional) ( २ ) हीनयोग या आवश्यक द्रव्यों की कमी ( ३ ) तृणाणुज, कीटाणुज या कृमिज उपसर्ग ( Infections) ( ४ ) अभिघात ( Trauma ) ( ५ ) भौतिक ( Physical ) ( ६ ) रासायनिक ( Chemical ) । आयुर्वेद में भी रोगकारक हेतुओं का वर्गीकरण शब्दभेद से इसी प्रकार का हैआदिबलप्रवृत्ताः, जन्मबलप्रवृत्ताः, संघातबलप्रवृत्ताः, दैवबलप्रवृत्ताः, स्वभावबलप्रवृत्ताः । सुश्रुत सूत्र २४ ॥ (तुलनात्मकविवरण के लिए लेखक की उक्त सूत्र की टीका देखिये) । ये रोगकारक हेतु जिस प्रकार से विकृतियों को उत्पन्न करते हैं उसको विकृतिजनन या संप्राप्ति (Pathogenesis ) कहते हैं - यथादुष्टेन दोषेण यथा चानुविसर्पता । निवृत्तिरामयस्यासौ सम्प्राप्तिर्जातिरागतिः ॥ ( माधवनिदान ) रोगकारक हेतुओं से शरीर के धात्वाशयादि अंगों में जो अस्वस्थ अवस्थाएँ या स्थित्यन्तर उत्पन्न होते हैं उनको विकृतियाँ ( Morbidity ), इन विकृतियों से युक्त धातु, अंग या आशय के विवरण को विकृतशारीर ( Morbid anatomy ) और इन विकृतियों के शास्त्र को विकृतिविज्ञान ( Pathology ) कहते हैं । शरीर के धात्वाशयादि अंगों में होनेवाली विकृतियाँ अनंत होते हुए भी प्रतिक्रिया ( Reaction ), शोथ ( Inflammation ), जीर्णोद्वार ( Repair ), वृद्धि में बाधा ( Disturbance in growth ), अपजनन ( Degeneration ), अर्बुद ( Tumour ) इत्यादि कुछ इने गिने सामान्य प्रकार की होती हैं । जब शरीरगत संपूर्ण विकृतियों का तथा उनके हेतुओं का विवरण उपर्युक्त सर्वसाधारण प्रकारों के अनुसार किया जाता है तब उसको सामान्य विकृतिविज्ञान ( General Pathology ) और जब शरीर के प्रत्येक अंग, आशय या संस्थान का विवरण उसमें होनेवाली उपर्युक्त प्रकार की विकृतियों के साथ स्वतन्त्रतया किया जाता है तब उसको विशेष विकृतिविज्ञान ( Special Pathology ) कहते हैं। जब शरीर के भीतरी इन विकृतियों का स्वरूप आसानी से इन्द्रियग्राह्य होता है तब उसको स्थूल ( Gross ) और जब असंलच्य स्वरूप का होने से देखने के लिए सूक्ष्मदर्शक की आवश्यकता होती है तब उसको सूक्ष्म ( Microscopic ) कहते हैं । विकृतिविज्ञान का विकास - विविध रोगकारक हेतुओं से शरीर के धात्वाशयादि अंगों में जो विविध विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं उनका कार्यकारणभाव प्रदर्शित करना, For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy