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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४ ] होते हैं। इसलिए शरीर में विकृतियों के स्वरूप में रोग बहुत पहले से रहता है, केवल वह बहुत सूक्ष्म होने से इन्द्रियग्राह्य कम होकर बुद्धिग्राह्य अधिक होता है और सामान्य जनता समझ सके उस प्रकार का उसके लिए कोई नाम नहीं होता या दिया जा सकता । रोग निदान में रोगों के नामकरण को विशेष महत्व दिया जाने के कारण ही चरकाचार्य जी ने वैद्य को निम्न प्रकार की चेतावनी दी है विकारनामाकुशलो न जिहीयात् कदाचन । । न हि सर्वविकाराणां नामतोऽस्ति ध्रुवा स्थितिः॥ इसलिए जिसको रोग निदान में प्रावीण्य प्राप्त करना है उसको विकृतिविज्ञान एक शुद्ध शास्त्र ( Pure science ) समझ करके नहीं, बल्कि रोगकारक हेतु, रोगों की सम्प्राप्ति और रोगों के लक्षण इनके पारस्परिक सम्बन्ध का एक व्यावहारिक (Applied ) शास्त्र समझ करके उसका खासा गाढा अध्ययन करना चाहिए । निदान काल-जब शरीर गत विकृतियाँ काफी बढ़ जाती हैं तब उनके निदान में आसानी रहती है परन्तु रोग निर्मूलन और रोगनिवारण में बहुत कठिनाई होती है। इसके विपरीत जब विकृतियाँ बहुत सूचम और असंलक्ष्य रहती हैं तब उनके निदान में कठिनाई होती है, परन्तु निदान होने पर रोगनिवारण और रोगनिर्मूलन में बहुत सरलता होती है। इसलिए वैद्य को निदान में प्रावीण्य प्राप्त करने का जो प्रयत्न करना है वह उत्तरोत्तरकालीन विकृतियों के लिए नहीं बल्कि पूर्व-पूर्वकालीन विकृतियों के लिए-चय एव जयेद्दोषम् । अष्टांगसंग्रह ॥ संचयेऽपहृता दोषा लभन्ते नोत्तरागतीः । ते तूत्तरासु गतिषु भवन्ति बलवत्तराः ॥ (सुश्रुत) निदान के साधन-आप्तोपदेश प्रत्यक्षपरीक्षण और अनुमान ये निदान के तीन साधन बतलाये गये हैं । ये आधुनिक काल में भी उपयुक्त हैं आप्ततश्चोपदेशेन प्रत्यक्षकरणेन च । अनुमानेन च व्याधीन् सम्यग विद्याद्विचक्षणः । (१) आप्तोपदेश-प्राचीन काल में ज्ञान भण्डार गुरु जनों के पास रहता था, ग्रन्थ बहुत कम थे और वे भी अत्यन्त संक्षिप्त थे। इसलिए आप्तोपदेश प्रथम साधन बताया है। आधुनिक काल में मुद्रण कला के कारण गुरु जनों का बहुत कुछ कार्य उत्तमोत्तम ग्रन्थों के पठन से हो जाता है। इसलिए वैद्य को विकृतिविज्ञान के अनेक ग्रन्थों का अच्छा अध्ययन करना चाहिए। (२) प्रत्यक्ष-इसमें सर्वप्रथम ज्ञानेन्द्रियों द्वारा रोगी का परीक्षण किया जाता है। आज कल ज्ञानेन्द्रियों की सहायता करने के लिए अनेक उपकरण और यन्त्र उपलब्ध हुए हैं । इनके अतिरिक्त शरीर के अवकाशों को देखने के लिए अनेक वीक्षण यन्त्र ( Scopes ) होते हैं इन सबों का उपयोग प्रत्यक्षकरण में करना चाहिए। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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