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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्प्राप्तिविमर्श १०६३ अतिसार, अग्निमान्द्य के साथ दुष्ट, श्याव, दुर्गन्धपूर्ण, पीला, गँठीला बहुत सा कफ रक्त के साथ खाँसी आने पर बार-बार निकलता है । वह उरस्वती शुक्र और ओज के क्षय से और भी क्षीण होता चला जाता है। २५-उरस्तोय-उरस्तोयनामामये प्रायशोऽस्मिन्नुरस्येकपाश्र्वेऽथवा पार्श्वयोः । भवेत् सञ्चयोद्धा जलीयस्य धातोरपि प्राणहृत् पूर्णतोयः प्रदिष्टः ।। (-उपाध्याय) उरस्तोय नाम के इस रोग में प्रायः पार्श्व के एक अथवा दोनों पाश्चौं में जलीय धातु का संचय हो जाता है । इसे पूर्णतः प्राणनाशक बतलाया जाता है। २६-उष्णवात-रजस्वलायां बहुभुक्तवत्यां तथाऽऽतयोनौ मदनातुरो यः। प्रयातु मोहाद् यदि कोऽपि तर्हि ध्रुवं गदं दारुणमेतुमेतु ॥ या मूत्रनाड्यन्तरसंस्थिता त्वक श्लेष्मावहा सा व्रणिता सतीतु । क्लेदं गदेऽत्राहरति प्रकामं ततो भिषग्भिव्रणमेह उक्तः॥ (-उपाध्याय) रजस्वला, अतिशय भोजन की हुई तथा जिनकी योनि में यह रोग लगा हुआ है उनमें कामदेव के प्रभावसे अन्धा होकर जो कोई भी सहवास करता है उसे यह दारुण रोग अवश्य मिल जाता है। इसमें मूत्रनाडी की आभ्यन्तरीय श्लेष्मलकला व्रणित हो जाती है जिससे वहाँ पर्याप्त दाह तथा पूयस्राव होता है । इसीसे इसे व्रणमेह भी कहते हैं। २७-ऊर्द्धवात-अधःप्रतिहतो वायुः श्लेष्मणा मारुतेन वा । ___ करोत्युद्गारबाहुल्यमूर्ध्ववातः स उच्यते ॥ कफ से या स्वयं अपने आप वायु नीचे गमन करने में असमर्थ कर दी जाती है तो प्रतिलोम गतिवाली वह वायु बहुत बार डकारे उत्पन्न कर देती है। वही ऊर्ध्वात कहलाती है। २८-कफज छर्दिनन्द्रास्यमाधुर्यकफप्रसेकसन्तोषनिद्रारुचिगौरवार्तः । स्निग्धं घनं स्वादु कर्फ विशुद्धं सलोमहर्षोऽल्परुजं यमेत्तु ॥ (च. चि. स्था. २०) तन्द्रा, मुखकी मधुरता, कफप्रसेक, भोजन करने की अनिच्छा, निद्रा, अरुचि और गौरव के कारण स्निग्ध, ठोस, मधुरस्वाद वाले जिस कफ का वमन होता है, जिसके साथ रोमहर्ष होता है तथा अधिक कष्ट भी नहीं होता उसे कफज छर्दि मानना चाहिए। २९-कफोदर-अव्यायामदिवास्वप्नस्वातिस्निग्धपिच्छिलैः। दधिदुग्धोदकानूपमांसैश्चाप्यतिसेवितैः ॥ क्रद्धेन श्लेष्मणा स्रोतः स्वावृतेष्वावृतोऽनिलः । तमेव पीडयन् कुर्यादुदरं बहिरन्तरम् ॥ (च. चि. स्था. १३) अव्यायामादि कफवर्द्धक कारणों से कुपित हुए कफ से भरे स्रोतों के द्वारा वायु आवृत हो जाता है कफ को अन्दर बाहर से पीडा पहुँचा कर कफोदर को उत्पन्न कर देता है। ३०-कर्णमूलिक ज्वर पूर्व भवेदेकतरे हि पार्थे कर्णस्य शोथो ज्वरकृद्रुजावान्। ततो द्वितीयेऽनुपदं भिषग्वरैर्गदः स उक्तो भुवि कर्णमूलिकः ॥ अयं ज्वरो वातकफोद्भवस्तथा विशेषतो जानपदः प्रदृश्यते । आरम्भ में कान के एक पार्श्व में शोथ होता है जिसमें शूल होता है तथा ज्वर रहता है फिर दूसरे पार्श्व में भी सशूल शोथ हो जाता है। यह वातकफात्मक ज्वर है जो जनपद (जिले भर) के निवासी बालकों में विशेषकर के देखा जा सकता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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