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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६४ विकृतिविज्ञान ३१-कर्दमविसर्पकफपित्ताज्ज्वरः स्तम्भो तन्द्रा निद्रा शिरोरुजः। अङ्गावसादविक्षेपप्रलापारोचकभ्रमाः ।। मूर्छाग्निहानिर्भेदोऽस्थ्नां पिपासेन्द्रिय गौरवम्। आमोपवेशनं लेपः स्रोतसां स च सर्पति ।। प्रायेणामाशये गृह्णन्नेकदेशं न चातिरुक्। पिटकैरवकीर्णेऽतिभीतलोहितपाण्डुरैः॥ मेचकामोऽसितः स्निग्धोमलिनः शोफवान गुरुः। गम्भीरपाकः प्राज्योष्मा स्पृष्टः क्लिन्नोऽवदोर्यते।। पङ्कवच्छीर्णमांसश्च स्पष्टस्नायुसिरागणः । शवगन्धी च वीसर्पः कर्दमाख्यमुशन्ति तम् ॥ (अ. सं. अ. १३) कफ और पित्त के कारण ज्वर-स्तम्भ-तन्द्रा-निद्रा-शिरःशूल-अंगावसाद-विक्षेपप्रलाप-अरुचि-भ्रम-मूर्छा-अग्निमान्द्य-अस्थिशूल-तृष्णा-इन्द्रियगौरव-आममल का त्यागस्रोतों में अवरोध के साथ वह विसर्प आमाशय में एकदे शीयरूप में स्थित हो जाता है । पीडा अधिक नहीं रहती। पीली-लाल-पाण्डुरवर्ण की पिटिकाएं फैली रहती हैं । वह विसर्प मेचक (कृष्ण कपिल) कृष्ण, स्निग्ध, मलिन, शोफयुक्त, गुरु, गम्भीरपाक और अत्यन्त उष्ण होता है । छूने मात्र से फटता है। उसमें क्लिन्नता होती है। मांस के शीर्ण होने से कीचड़ के समान उस विसर्प में स्नायु तथा सिराएँ स्पष्टतया दिखलाई देती हैं। इसमें शव के समान गन्ध आती है। इस विसर्प को कर्दम कहते हैं। ३२-कामलापाण्डुरोगी तु योत्यर्थ पित्तलानि निषेवते । तस्य पित्तमसृङमांसं दग्ध्वा रोगाय कल्पते ॥ कामला बहुपित्तैषा कोष्ठशाखाश्रया मता ॥ (च.चि. अ. १६) अत्यधिक पित्तवर्द्धक पदार्थों का जो पाण्डुरोगी सेवन करता है उसका पित्त, रक्त और मांस को भी दूषित करके कामला की उत्पत्ति करता है। यह अत्यधिक पित्त से उत्पन्न रोग है जो कोष्टाश्रित तथा शाखाश्रित दो प्रकार का होता है। ३३-कालज्वर जीवाणवस्त्वस्य गदस्य नूनं मज्जान्त्रयोर्मुष्कजकोशमध्ये । अध्यन्त्रभित्त्यस्थ्न्यधिफुफ्फुसं वै प्रायो यकृत्प्लीहगता वसन्ति ।। प्लीहायकृच्चैधत एवं नूनमनारतं ते क्षुभिते विशेषात् । स्यातां च ते सौत्रिकतन्तुयुक्ते ज्वरामयेऽस्मिन्ननु कालसंशे ॥ ( उपाध्याय ) इस रोग के जीवाणु अस्थिमजा, अन्त्र, अण्डकोश, आन्त्रभित्ति, अस्थि, फुफ्फुस, यकृत् तथा प्लीहा में प्रायः निवास करते हैं। इनके कारण यकृत् तथा प्लीहा में विशेष क्षोभ होता है, वे बढ़ जाते हैं और तान्तव उत्कर्ष से युक्त देखे जाते हैं। यह कालसंज्ञक ज्वर (कालाजार ) है। ३४-कासअधः प्रतिहतो वायुरूव॑स्रोतः समाश्रितः। उदानभावमापन्नः कण्ठे सक्तस्तथोरसि ।। आविश्य शिरसः खानि सर्वाणि प्रतिपूरयन् । आभअन्नाक्षिपन् देहं हनुमन्ये तथाक्षिणी ॥ नेत्रपृष्ठमुरः पार्वे निर्भुज्य स्तम्भयंस्ततः । शुद्धो वा सकफो वापि कासनात् कास उच्यते ॥ प्रतिघातविशेषेण तस्य वायोः सरंहसः। वेदनाशब्दवैशेष्यं कासानामुपजायते ।। (च. चि. स्था. अ.१८) किसी कारणविशेष से अथवा स्वयमेव जब वायु का अधोगमन रुक जाता है तब वह ऊर्ध्वस्रोतों के आश्रित होकर उदानभाव को प्राप्त हो जाता है। जिसके कारण कण्ठ और छाती में संलग्न हो जाता है। सिर के समस्त छिद्रों (स्रोतों) में पहुँचकर उन्हें For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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